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सम्भव
पद्मप्रभ
ऋषभ
चन्द्र
सिंह
तभी महामंत्री सुगुप्त आ गये । नन्दा ने उलाहना देते हुए यह घटना सुनाई। मंत्री सुगुप्त भी चिन्तित हो गये। महाराज शतानीक और रानी मृगावती को भी इसकी सूचना मिली कि श्रमण वर्द्धमान कौशाम्बी नगरी में चार महीने से भूखे-प्यासे घूम रहे हैं। सभी का मन व्यथित हो उठा, पूरा राज-परिवार भगवान के दर्शनों के लिए गया, और भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की।
दासी की बात सुनकर तो नन्दा का हृदय और भी दुःखी हो गया। क्या कहा - " महाश्रमण भिक्षा लिए बिना ही लौट जाते हैं इसका मतलब है चार माह से इसी प्रकार लौट गये ! मैं कितनी भाग्यहीन हूँ '!!"
अभिनन्दन
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पाँच महीने पच्चीस दिन बीत गये। छब्बीसवें दिन का सूर्योदय हुआ । मध्यान्ह का समय भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए सेठ धनावह के भवन की तरफ पधार रहे हैं। अनेक लोग प्रभु रहे हैं।
- " तुमने, चार महीने से भूखे-प्यासे प्रभु मेरे द्वार से भी
है, और सूप
भौंहरे की देहलीज के बीच चन्दना बैठी थी, एक पाँव भीतर एक बाहर, पास में सूप बासी उड़द के बाकले जब वह हाथ-पैर में बेड़ियाँ देखती है तो सहसा पुरानी स्मृतियाँ उभर आती हैं, उसकी आँखें भीग जाती हैं। सहसा जन- कोलाहल सुनाई देता है। मुँह ऊपर उठाकर देखती है तो उसके सामने खड़े हैं-तरणतारण श्रमण महावीर ! चन्दना भाव-विभोर हो जाती है। “धन्य हैं प्रभु ! आज इस दयनीय स्थिति में आपने मुझे सँभाला।" उसके चेहरे पर हर्ष की आभा चमकने लगती है। चन्दना का रोम-रोम जैसे नाच उठा । "प्रभु पधारो ! मेरे हाथ से कुछ ग्रहण करो भगवान महावीर आगे बढ़कर रुक गये । उनके अभिग्रह की १२ बातें सब मिल रही हैं, परन्तु खुशी के मारे चन्दना की आँखों के आँसू सूख गये थे।
भगवान को वापस मुड़ते देखा तो जैसे चन्दना की खुशियों पर पाला पड़ गया । "हाय भाग्य ! क्या मैं इतनी बदनसीब हूँ कि इस दीन-हीन असहाय स्थिति में मेरे प्रभु द्वार पर आकर खाली लौट गये उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे।
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मुड़कर देखा प्रभु महावीर ने, अभिग्रह की सभी बातें पूर्ण हो रही थीं | भगवान कमल-पत्र के दोने की भाँति दोनों हाथ का दोना बनाकर चन्दना के सामने खड़े हो गये। भाव-विह्वल चन्दना ने सूप में रखे उड़द पुष्पमाला के बाकले प्रभु के हाथों में बहराये। प्रभु ने आहार ग्रहण कर लिया। (चित्र M-24)
विमल
अनन्त
था । प्रभु वर्द्धमान के पीछे-पीछे चल
दूसरे ही क्षण हर्ष के अतिरेक से चन्दना की बेड़ियाँ टूट-टूटकर बिखर गईं। आकाश में देव-दुन्दुभि वजने लगी। “अहोदानं” के दिव्य घोष से दिशाएँ गूँज उठीं। विकसित पुष्प, वस्त्र और गंधोदक की वृष्टि हुई, मणि रत्नों के ढेर से सेठ धनावह का आँगन भर गया। पहले से भी हजार गुना रूप निखर उठा चन्दना का । देव-देवियों ने वस्त्रों, अलंकारों से चन्दना का श्रृंगार किया ।
धर्म
भगवान के साधनाकाल का यह अभिग्रह मातृ-जाति को दासता से मुक्त करने के दिव्य अभियान का एक चरण माना जा सकता है।
अन्तिम महाउपसर्ग : कानों में कीलें
साधनाकाल का बारहवाँ चातुर्मास चम्पा नगरी में बिताकर विहार करते हुए भगवान “छम्माणी गाँव के बाहर आकर कायोत्सर्ग में खड़े थे। संध्या का समय था। खेतों में काम करके एक ग्वाला घर को लौट रहा
Illustrated Tirthankar Charitra
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सचित्र तीर्थंकर चरित्र
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