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पद्म
मूला ने चन्दना को डाँटकर चुप कर दिया। एक भौंहरे में बन्द कर ताला लगाया और चाबी साथ लेकर अन्यत्र चली गई।
तीसरे दिन सेठ धनावह वापस आये। घर को सूना-सूना देखा तो हृदय धड़क उठा। बाहर से ही पुकारा"बेटी चन्दन ! बेटी चन्दन !'' परन्तु चन्दन का उत्तर नहीं मिला। सेठ ने भवन के दूसरी तरफ से पुकार लगाई। बार-बार जोर से पुकारा, चन्दना ने भीतर से ही उत्तर दिया-"पिताजी ! मैं यहाँ पीछे के भौंहरे में हूँ।"
ध्वजा सेठ ने भौंहरे के दरवाजे बन्द देखे, ऊपर ताला लगा हुआ। बाहर से ही चन्दना की दुर्दशा देखी तो वह फूट-फूटकर रो पड़ा-“बेटी ! यह क्या हुआ? किस दुष्ट पापात्मा ने तेरी दुर्दशा की है?" चन्दना ने धीरज के साथ कहा-"पिताजी, पहले मुझे बाहर निकालो, फिर सब-कुछ बताऊँगी।"
सेठ ने किसी प्रकार दरवाजे खोले, चन्दना को बाहर निकाला। उसने कहा-"पिताजी ! मैं तीन दिन से भूखी-प्यासी हूँ । कुछ खाने-पानी को दे दीजिए।" सेठ ने देखा, घर का सब सामान भीतर बन्द है, सिर्फ गायों के खाने के लिए उड़द के बाकले बाहर रखे हैं। बर्तन भी कोई नहीं, सेठ ने एक कोने में रखा सूप उठाया, उसमें उड़द के बासी बाकले रखे, और चन्दना के सामने रख दिये-“बेटी ! तू कुछ खा, तब तक मैं लुहार को बुलाकर तेरी बेड़ियाँ तुड़वाता हूँ।" कठोर अभिग्रह
सरोवर ____ भगवान महावीर के साधनाकाल का यह बारहवाँ वर्ष था। वैशाली में चातुर्मास सम्पन्न करके विहार करते | हुए प्रभु कौशाम्बी के उद्यान में पधारे। शतानीक का चम्पा पर आक्रमण ! चम्पा का पतन ! शील-रक्षा के लिए बलिदान और फिर राजकुमारी वसुमती का कौशाम्बी के बाजार में दासी के रूप में विक्रय! यह सारा घटनाक्रम कौशाम्बी के आस-पास ही घूम रहा था। प्रभु महावीर के ज्ञान-दर्पण में यह सब-कुछ प्रतिबिम्बित-सा हो रहा है। प्रभु ने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक विकट अभिग्रह धारण किया___“मैं एक दासी बनी राजकुमारी के हाथ से भिक्षा ग्रहण करूँगा। उस राजकुमारी का सिर मुंड़ा हो, हाथ-पैरों में बेड़ियाँ डली हों, आँखों में आँसू हों, तीन दिन की भूखी-प्यासी हो, घर की देहलीज के बीच बैठी हो, सूप के कोने में उड़द के बाकले खाने के लिए रखे हों, जब तक इस प्रकार की भिक्षा नहीं मिलेगी, तब तक सर्वदा तपस्या करता रहूँगा ।"
भवन कौशाम्बी के गृहस्थों के घर भिक्षा हेतु पर्यटन करते हुए भगवान महावीर को लगभग चार महीने बीत गये।
एक दिन कौशाम्बी के महामंत्री सुगुप्त के भवन पर प्रभु भिक्षार्थ पधारे। सुगुप्त की पत्नी नन्दा प्रभु पार्श्वनाथ की उपासिका थी, श्रमणों के संयमी जीवन से परिचित। महाश्रमण वर्द्धमान को भिक्षार्थ पधारे देखकर वह आनन्द विभोर हो गई। शुद्ध प्रासुक भिक्षा के लिए प्रभु को आमंत्रित किया। परन्तु प्रभु महावीर
राशि उसके द्वार पर पधारकर वापस लौट गये। नन्दा का हृदय दुःखी हो गया। वह अपने भाग्य को कोसती हुई फूट-फूटकर रोने लगी-"आज मेरे घर पर महाश्रमण वर्द्धमान पधारे और मैं भाग्यहीन, उनको कुछ भी भिक्षा नहीं दे सकी." तभी नन्दा की दासियों ने कहा-"स्वामिनी ! आप इतनी दुःखी क्यों होती हैं ? यह तपस्वी तो चार महीने से इसी प्रकार कौशाम्बी के घरों में भिक्षार्थ आता है, और बिना कुछ लिए, बिना बोले वापस |
निधूम चला जाता है, हम तो चार महीने से इसी प्रकार देख रही हैं, फिर आप इतना पश्चात्ताप क्यों करती हैं ?"
अग्नि भगवान महावीर : श्रमण-जीवन
( १३७ ) Bhagavan Mahavir : The Life as an Ascetic
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