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ध्वजा
कुम्भ
पद्य
सरोवर
सामानिकों ने निवेदन किया-“महाराज ! ये सौधर्मकल्प के स्वामी शक्रेन्द्र हैं। चिरकाल से ही इसी प्रकार ये अपने विमानों में आनन्द बिलास करते रहते हैं।"
असुरराज चमरेन्द्र का क्रोध और भी भड़क उठा। बोले-“अब यह नहीं चलेगा। मैं आज ही इसके विमानों को नष्ट कर डालूँगा।"
. सामानिकों द्वारा समझाने पर भी असुरराज क्रोध एवं अहंकार में विवेकशून्य बने रहे और सुधर्म देव विमान पर आक्रमण करने को शस्त्र उठा लिया। परन्तु तभी उसे अपनी अल्प शक्ति और अल्प ऋद्धि का भान हुआ। दुर्बल व्यक्ति शक्तिशाली शत्रु से टकराने से पहले उससे भी प्रचण्ड शक्तिशाली का आश्रय खोजता है ताकि संकट के समय में रक्षा हो सके। असुरराज ने भी ध्यान देकर देखा, तभी उसे सुंसुमारपुर के बाहर अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े महातपस्वी श्रमण वर्द्धमान दिखाई दिये। वह शीघ्र ही नीचे आया, प्रभु की वन्दना की, प्रार्थना करके कहा-“भन्ते ! मैं असुरराज चमरेन्द्र आपकी शरण लेकर सुधर्मेन्द्र शक्र से युद्ध करने जा रहा हूँ। आप मेरी रक्षा करें।" और प्रचण्ड वेग के साथ असुरराज ने सुधर्म सभा में जाकर हुँकार की-“अरे ! कहाँ है वह सुधर्म देवराज शक्क ! मैं अभी उसको नष्ट भ्रष्ट कर डालता हूँ।" (चित्र M-23/1)
कौन है यह प्रचण्ड बली ? किसने दुस्साहस किया है आज ! देवराज ने तत्काल अपना अमोघ वज्र उठाया और पूरी शक्ति के साथ चमरेन्द्र पर फेंका। वन हाथ से छूटते ही उससे एक साथ हजारों किरणें छूटने लगीं। तीव्र वेग से वज्र को अपनी ओर बढ़ता देखकर चमरेन्द्र घबराया, जान हथेली में लेकर दौड़ा। जहाँ भगवान महावीर ध्यानस्थ थे, उसी दिशा में तीव्र गति से बढ़ा। पीछे-पीछे वज्र हजारों अग्नि ज्वालाएँ फेंकता हुआ दौड़ रहा था।
शक्रेन्द्र ने देखा-“अरे ! यह तो महाश्रमण महावीर की शरण लेकर यहाँ आया है, और अब उसी ओर भागता जा रहा है। कहीं ऐसा न हो कि मेरे बज्र से प्रभु को पीड़ा पहुँचे। कुछ भी अनिष्ट हो जाये?" शक्रेन्द्र तुरन्त अपने आसन से उठे और प्रचण्ड बेग के साथ वज्र के पीछे-पीछे दौड़े। आकाश-मण्डल में एक विचित्र दृश्य उपस्थित हो गया। आगे-आगे असुरराज, जोर से पुकारते हुए-“प्रभु ! आपकी शरण है। प्रभु आपकी शरण है।'' पीछे-पीछे वज्र अग्नि ज्यालाएँ छोड़ता हुआ, और उसके पीछे देवराज शक्र वज्र को पकड़ने का प्रयास करते हुए। असुरराज छोटा-सा रूप बनाकर भगवान महावीर के पीछे छुप गया और तभी शक्र ने प्रचण्ड वेग के साथ वज्र को पकड़ लिया। यज्र और प्रभु महावीर के बीच सिर्फ चार अंगुल का ही अन्तर रह गया था। शक्र ने असुरराज को सम्बोधित करके कहा-"असुरेन्द्र ! तुमने जो अपराध किया है, वह अक्षम्य है, किन्तु श्रमण भगवान महावीर की शरण ग्रहण करके तुमने मेरे हाथों को बाँध दिया। जाओ, तुम महाश्रमण महावीर के शरणागत हो, इसलिए मैं अभयदान देता हूँ।"
असुरराज भयमुक्त हो गये। देवराज शक्र का हृदय भी द्वेषमुक्त हो गया। दोनों ही प्रभु की वन्दना करके अपने-अपने स्थान पर चले गये। (चित्र M-23/2) चन्दना का उद्धार
वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी में महाराज शतानीक का राज्य था। शतानीक की पटरानी मृगावती वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष महाराज चेटक की पुत्री थी। वत्स देश का पड़ोसी राज्य था अंग, और अंग देश
समुद्र
विमानभवन
राशि
निर्धूम अग्नि
भगवान महावीर . श्रमण-जीवन
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Bhagavan Mahavir : The life as an Ascetic
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