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________________ ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन सुमति पदाप्रभ सिंह वृषभ संगम नाम का एक क्रूर हृदय देव देवराज की प्रशंसा को चुनौती देता हुआ बोला-“यदि देवराज बीच में हस्तक्षेप न करें तो मैं श्रमण महावीर को ध्यानच्युत कर सकता हूँ। उनकी समाधि तोड़ सकता हूँ।' देवराज मन मसोसकर मौन हो गये। भगवान चाहे भक्त की परीक्षा लें, या भक्त भगवान की, परीक्षा-परीक्षा ही है, परीक्षा के लिए दोनों को ही असह्य पीड़ाओं की अग्नि में तपना पड़ता है। फिर होनहार बलवान ! देवराज मौन रहे, और संगम अपनी पूरी शक्ति बटोरकर उसी रात्रि को पोलाश उद्यान में एक रात्रि की प्रतिमा में स्थित भगवान महावीर की अग्नि-परीक्षा लेने आ धमका। संगम ने आते ही उपसर्गों का तूफान उठाया। अचानक साँय-साँय की आवाज से दिशाएँ काँप उठीं। भयंकर धूल-भरी आँधी से महावीर के शरीर पर मिट्टी के ढेर जम गये। आँख, नाक, कान और पूरा शरीर धूल से दब गया, पर महावीर ने अपने निश्चय के अनुसार आँख की पलकें भी बन्द नहीं की। फिर वज्र जैसे तीक्ष्ण मुँह वाली चींटियाँ चारों ओर से महावीर के शरीर को काटने लगीं। ___ फिर बिच्छुओं के तीव्र दंश प्रहार, नेवलों द्वारा माँस नोचना, भीमकाय विषधर सो द्वारा शरीर पर लिपटकर जगह-जगह दंश मारना और उसके बाद तीखे दाँत वाले चूहे काट-काटकर महायोगेश्वर को त्रास देने लगे। फिर जंगली हाथी ने दंतशूल से प्रहार कर महावीर को सूंड़ से पकड़कर गेंद की तरह आकाश में उछाल दिया, पैरों के नीचे मिट्टी की भाँति रौंद डाला। अब एक भयंकर पिशाच अट्टहास से शून्य दिशाओं को भय-भैरव बनाता हुआ प्रभु के समक्ष आया। तभी त्रिशूल जैसे तीक्ष्ण नखों वाला बाघ महावीर पर झपटा, वह स्थान-स्थान से माँस नोचने लगा, परन्तु प्रभु प्रस्तर-प्रतिमा की तरह अचल खड़े रहे। महावीर दोनों पैर सीधे सटाये खड़े थे, संगम ने पैरों के बीच में आग लगा दी। अंत में संगम ने माया रची, बसन्त ऋतु की मन्द और मादक बयार बहाई, भीनी-भीनी सुगन्ध ! शान्त वातावरण, मोर की मीठी-मीठी प्रणयवर्धक बोली, नूपुर की झंकार करती हुई अर्धवसना अप्सराएँ अपने माँसल कामोत्तेजक अंगों का प्रदर्शन कर काम-याचना करने लगीं, महावीर के शरीर से लिपटने लगीं। पर अनिमेष दृष्टि महावीर तो उसी प्रकार स्थिर खड़े रहे। इस प्रकार एक रात में २० प्रकार के प्रतिकूल-अनुकूल परिषह उत्पन्न करके संगमदेव थक गया किन्तु भगवान महावीर अपनी ध्यान चेतना में स्थिर रहे। (चित्र M-22) शरण आया असुरराज विन्ध्याचल पर्वतमाला में पूरण नाम का एक तापस रहता था। उसने बारह वर्ष तक कठोर बाल तप किया, फलस्वरूप वह असुर देवों की राजधानी चमरचंचा में चमरेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होते ही उसके मन में अपनी शक्ति और ऋद्धि का अभिमान जाग उठा। उसने ज्ञान-बल से इधर-उधर देखा कि संसार में मझसे भी बढ़कर शक्ति और ऋद्धिशाली कोई है क्या? तो ठीक उसके सिंहासन के ऊपर सौधर्म स्वर्ग में देवराज शक्रेन्द्र आनन्द विलास करते दिखाई दिये। असुरेन्द्र ने अपने सामानिक देवों से पूछा-"यह कौन विवेकहीन पुण्यहीन अहंकारी देव है, जो मेरे मस्तक पर पैर किये, निर्लज्जतापूर्वक बैठा भोग-विलास कर रहा है ?" लक्ष्मी पुष्पमाला चन्द्र Illustrated Tirthankar Charitra ( १३४ ) सचित्र तीर्थंकर चरित्र JainEducation-internationa204 -E-D.......a c.calco-old
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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