________________
ध्वजा
पद्य
प्रभु ने कहा-“अभी वह अपनी तेजोलेश्या से तुझे भस्मसात् करने वाला था, किन्तु मेरी शीतललेश्या से अग्नि शान्त हो गई और तू बच गया ।'' (चित्र M-20) कटपूतना का उपसर्ग
साधनाकाल का छठा वर्ष चल रहा था। माघ का महीना, रोम-रोम कैंपाने वाली तेज शीत हवाएँ चल रही थीं। रात्रि का शान्त समय, शालिशीर्ष नगर के बाहर एकान्त शून्य जंगल में भगवान महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान योग में मग्न थे। अचानक कटपूतना नाम की एक व्यन्तरी उधर आई। भगवान महावीर को कायोत्सर्ग में खड़े देखा तो, पूर्व जन्मानुबंधी द्वेष भाव जाग उठा। उसने एक परिव्राजिका का विकराल रूप धारण किया, लम्बी-लम्बी जटाएँ फैलाईं और उन जटाओं में अत्यन्त शीतल पानी भरकर तेज धार से प्रभु के । मस्तक एवं शरीर पर बरसाने लगी। सिर पर गिरता तेज धारायुक्त ठंडा पानी, इधर तूफानी ठंडी हवाएँ और उधर दिशाओं को कँपाने वाला क्रूर अट्टहास। घंटों और प्रहरों तक क्रूर राक्षसी ने भगवान को मर्मान्तक | कष्ट दिये, उनकी ध्यान प्रतिमा भंग करने का असंभव से असंभव प्रयत्न किया, परन्तु प्रभु महावीर उसी प्रशान्त भावना और अविचल समाधि के साथ ध्यान में स्थिर लीन रहे। परम ध्यानलीनता एवं उत्कृष्ट परिणाम-विशुद्धि की स्थिति में पहुँचने पर भगवान को विशिष्ट लोकावधिज्ञान उत्पन्न हुआ। (चित्र M-21/1) कारागार में बन्द साधनाकाल के छठे वर्ष में प्रभु महावीर वैशाली के पूरब में स्थित विदेह भूमि के कूपिय सन्निवेश में गये।
सरोवर वहाँ पर उन्हें आरक्षकों ने पकड़ लिया। परिचय पूछा, प्रभु मौन धारण किये रहे, तो उन्होंने शत्रु का गुप्तचर समझकर बंधनों से बाँधकर कारागार में डाल दिया। कूपिय सन्निवेश में विजया और प्रगल्भा नाम की दो परिव्राजिकाएँ रहती थीं। उन्होंने सुना, एक गुप्तचर नग्न भिक्षु के रूप में पकड़ा गया है तो वे देखने के लिए |
आईं। परिव्राजिकाओं ने प्रभु महावीर को पहचान लिया, वे बड़ी व्यथित हो उठीं, राजपुरुषों को फटकारते हुए बोली-“कैसे राजपुरुष हैं आप ! चोर और साहूकार को नहीं पहचान पाते? श्रमण और तस्कर में कोई भेद नहीं समझ सकते? इनकी शान्त, प्रशान्त मुखमुद्रा तो देखो ! क्या कोई सामान्य पुरुष हैं ये ? तुम्हें पता होना चाहिए ये सिद्धार्थ राजा के पुत्र श्रमण वर्द्धमान हैं ! इन्हें कष्ट दे रहे हैं कहीं देवराज इन्द्र कुपित हो गये तो क्या दशा होगी आप लोगों की ?"
विमान
भवन परिव्राजिकाओं द्वारा परिचय जानते ही राजपुरुषों ने बन्धनों से मुक्त कर प्रभु से क्षमा माँगी। प्रभु वहाँ से | फिर आगे एकान्त स्थान की ओर चले गये। (चित्र M-21/2) संगम द्वारा प्राणान्तक उपसर्ग पेढाल नगर के बाहर पोलाश चैत्य में प्रभु ने “एक रात्रि की प्रतिमा" धारण की। इस अपूर्व प्रतिमा योग |
राशि में प्रभु के तन-मन-बुद्धि और प्राण सभी स्थिर अचंचल-अप्रकम्प थे। प्रभु की उत्कृष्ट ध्यानलीनता देखकर मानव ही क्या, देवराज इन्द्र का हृदय भी गद्गद् हो उठा और भक्तिपूर्वक उनके स्वर फूट पड़े-“धन्य हैं प्रभु वर्द्धमान ! आज संसार में आप जैसा तपस्वी, धीर, वीर और सहिष्णु साधक दूसरा कोई नहीं है। मनुष्य तो क्या, देव दानव भी आपकी साधना को भंग नहीं कर सकते ! धन्य है महाप्राण ! महाप्रभु !” देवराज | इन्द्र अपने आसन से उठे और भक्तिपूर्वक प्रभु की वन्दना-स्तवना करने में मग्न हो गये।
अग्नि भगवान महावीर : श्रमण-जीवन .
( १३३ ) Bhagavan Mahavir : The Life as an Ascetic
समुद्र
रत्न
निधूम
Jaindable-internationaidacuda