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सुपार्श्व
) चन्द्रप्रभ
सुविधि
शीतल
श्रेयांस
वासुपूज्य
ध्वजा
चींटियों के काटने से असह्य वेदना हो रही थी, उसका शरीर छलनी जैसा हो गया, परन्तु फिर भी उसे खीझ | तक नहीं आयी। पन्द्रह दिन बाद शरीर त्यागकर नागराज चंडकौशिक सहस्रार स्वर्ग में देवता बना। अग्नि ज्वालाएँ शान्त हो गई
एक बार श्रावस्ती से विहार कर श्रमण महावीर हलिदुग (हलेढुग) गाँव की ओर जा रहे थे। मार्ग में 15 एक विशाल वट वृक्ष दिखाई दिया। ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान देखकर भगवान रात्रि में उसी वृक्ष के नीचे ध्यान प्रतिमा में स्थिर हो गये। शीत ऋतु का समय था, ठंडी तेज हवाएँ चल रही थीं। गौशालक भी साथ था, वह शीत से घबराकर वृक्ष की ओट में बैठ गया। रात में इस मार्ग से गुजरने वाले यात्रियों ने भी वृक्ष के नीचे विश्राम किया, भोजन आदि बनाने के लिए उन्होंने आस-पास से घास, लकड़ियाँ आदि एकत्र करके आग जलाई। भोजन पकाया और फिर रात-भर आग तापते रहे। प्रातःकाल होने पर यात्रियों का समूह आगे चल पड़ा, आग जलती रही। हवा के वेग से आग की लपटें बढ़ती-बढ़ती जहाँ महाश्रमण महावीर खड़े थे, वहाँ कुम्भ तक आ गईं। गौशालक चिल्लाया-"देवार्य, हटो यहाँ से, आग बढ़ती आ रही है।" परन्तु प्रभु तो आत्मलीन थे। आग की लपटें बढ़ती हुई भगवान के पैरों तक आ गईं। पैरों की चमड़ी झुलसने लगी, परन्तु फिर भी ध्यान के महासागर में निमग्न प्रभु को बाह्य वेदनाएँ विचलित नहीं कर सकीं। कुछ देर बाद आग स्वतः शान्त हो गई। (चित्र M-18/1) कालहस्ती द्वारा दारुण यंत्रणा
सरोवर एक वार महाश्रमण वर्द्धमान ने कलम्बुका सन्निवेश की सीमा में प्रवेश किया। यहाँ के अधिकारी थे मेघ | और कालहस्ती। जनशून्य मार्ग में विहार करते हुए श्रमण महावीर को कालहस्ती ने देखा, तो उन्हें पकड़ लिया, पूछा-"तुम कौन हो?" प्रभु मौन रहे। गौशालक भी मौन रहा। कालहस्ती को शंका हुई-“यह पड़ौसी | राज्य के गुप्तचर हैं ?" उसने उन्हें कठोर बंधनों से बाँधकर बड़ी निर्ममता से बेंतों से पीटा और फिर सेवकों समुद्र को आदेश दिया-“इन गुप्तचरों को बड़े भाई मेघ के पास ले जाओ, वे ही इनका मुँह खुलवायेंगे।"
सेवकों ने दोनों को चोरों की भाँति वाँधकर मेघ के सामने उपस्थित किया। मेघ को श्रमण वर्द्धमान की । मुख-मुद्रा परिचित-सी लगी, उसे याद आया-“एक समय महाराज सिद्धार्थ के दरबार में कुमार वर्द्धमान को देखा था, शायद ये तो वे ही हैं।'' वह निकट आया, उसे विश्वास हो गया, ये ही हैं कुमार वर्द्धमान जो श्रमण | विमानवन गये हैं। वह प्रभु के चरणों में गिर पड़ा। पश्चात्ताप के आँसू बहाते हुए क्षमा माँगी-“प्रभो ! आपको नहीं | भवन पहचानने से ही यह घोर अपराध हो गया? हम बड़े पापी हैं, जो आप जैसे महापुरुष को इतने कष्ट पहुँचाए। क्षमा कीजिए देवार्य !" (चित्र M-18/2)
मेघ के पश्चात्ताप पर प्रभु ने अभय मुद्रा में हाथ उठाया और आगे बढ़ गये। अनार्य प्रदेश में विहार
राशि साधनाकाल का पाँचवाँ वर्ष चल रहा था। श्रमण वर्द्धमान ने राढ (लाढ) प्रदेश की ओर विहार किया। इस प्रदेश के लोग श्रमण के आचार-विचार से तो क्या, श्रमण की वेश-भूषा से भी अपरिचित थे। नग्न श्रमण को खंडहरों व जंगलों में मूर्ति की तरह खड़ा देखकर वे आश्चर्यपूर्वक देखते रहते। पुकारने पर उत्तर नहीं |
निधूम मिलता तो वे झुंझलाकर लकड़ियों से भालों से, बेंत से, पत्थरों से उन पर प्रहार करते। कुछ लोग गीली बेंत भगवान महावीर : श्रमण-जीवन
( १३१ ) Bhagavan Mahavir : The Life as an Ascetic
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