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(L.) सुपार्श्व
भगवान ऋषभदेव की भविष्यवाणी सुनते ही सम्राट् भरत के हर्ष का आर-पार नहीं रहा। वे मरीचि को यह बधाई देने के लिए नंगे पाँव ही समवसरण के बाहर दौड़ते हुए आये और हर्षावेग में कहने लगे"मरीचि ! तुम धन्य हो। तुम महान् भाग्यशाली हो ! भगवान ऋषभदेव ने बताया है-तुम ही इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर बनकर संसार में धर्मोद्योत करोगे। हजारों-लाखों जीवों का कल्याण करोगे। इससे पहले तुम वासुदेव भी बनोगे, चक्रवर्ती भी और अन्त में धर्म चक्रवर्ती वर्द्धमान महावीर ! भावी तीर्थंकर वर्द्धमान ! तुम्हें कोटि-कोटि प्रणाम । "
मरीचि मारे खुशी के नाचने लगा। हर्ष में उन्मत्त होकर उछलने लगा ।
" अहा ! मैं कितना महान् हूँ ! कितना महान् है मेरा कुल और वंश ! मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती और मैं बनूँगा वासुदेव, चक्रवर्ती और फिर अन्तिम तीर्थंकर । " ( चित्र M-1/2 )
चन्द्रप्रभ
सुविधि
मरीचि का हर्ष सीमाएँ तोड़कर अहंकार में पहुँच गया। जमीन पर उसके पाँव नहीं टिक रहे थे। उछलतानाचता आने-जाने वालों के सामने यही कहता - "देखो, मेरा कुल कितना श्रेष्ठ है ! मेरा वंश कितना उत्तम है !"
शीतल
कुल की महानता का यह गर्व उसके मन में एक जाति-मद बनकर रह गया, और जाति-मद निश्चित ही आत्मा के पतन का कारण होता है। मरीचि ने कपिल नाम के एक राजकुमार को अपना शिष्य बना लिया, और परिव्राजक परम्परा का प्रवर्त्तन किया।
विश्वभूति
मरीचि भव के बाद के १२ जन्मों का विवरण पढ़ने से यह पता चलता है कि उसने छह भव देव लोक के और छह भव मनुष्य के किये, जिनमें वह त्रिदण्डी परिव्राजक बना ।
अनेक जन्मान्तरों के बाद १६ वें भव में मरीचि की आत्मा ने राजगृह नगर में राजा विश्वनंदी के छोटे भाई युवराज विशाखभूति के पुत्र विश्वभूति के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में मुनि दीक्षा लेकर उग्र तपश्चरण किया।
मुनिसुव्रत
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श्रेयांस
त्रिपृष्ठ वासुदेव
विश्वभूति का जीव आयुष्य पूर्णकर महाशुक्र देवलोक में गया और वहाँ से पोतनपुर के राजा प्रजापति की रानी मृगावती के पुत्र रूप में (१८वाँ भव) उत्पन्न हुआ । नाम रखा गया - त्रिपृष्ठ । विश्वभूति मुनि के जन्म में की हुई तपस्या और सेवा, वैयावृत्य आदि के फलस्वरूप त्रिपृष्ठ अद्भुत पराक्रमी, साहसी और तेजस्वी राजकुमार बना । प्रतिवासुदेव राजा अश्वग्रीव ने भी त्रिपृष्ठकुमार के बल विक्रम की चर्चा सुनी तो उसका जी धड़क उठा। उसने राजनिमित्तज्ञ से पूछा - " मेरी मृत्यु कैसे होगी ?" निमित्तज्ञ ने बताया- " जो वीर आपके चण्डमेघदूत को अपमानित / प्रताड़ित कर देगा तथा तुंगगिरि पर्वतों में रहने वाले खूँखार केसरी सिंह को मार डालेगा, उसी व्यक्ति के हाथों आपकी मृत्यु होगी।”
वासुपूज्य
अश्वग्रीव का मन धड़कने लगा। परीक्षा के लिए उसने चण्डमेघ दूत को राजा प्रजापति के पास भेजा। राजकुमार त्रिपृष्ठ ने चण्डमेघ दूत के अवज्ञापूर्ण व्यवहार पर रुष्ट होकर उसे धक्के देकर राजसभा से बाहर फिंकवा दिया।
कुछ ही दिनों बाद राजा प्रजापति के पास अश्वग्रीव ने आदेश भेजा - "तुंगगिरि के वन में शालिक्षेत्र की रक्षा के लिए आप तुरन्त चले जाइए।"
भगवान महावीर : पूर्व-भव
मल्लि
नमि
( १०३ )
| अरिष्टनेमि
Bhagavan Mahavir: Past-Incarnation
पार्श्व
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