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________________ सिंह गजा वृषभ मुनियों के इस सत्संग से, नयसार के जीवन की दिशा बदल गई। उसे धर्म की, सत्य की पहचान हुई। मिथ्यात्व के घने अंधकार में भटकने वाली आत्मा को सम्यक्त्व किरण का प्रथम स्पर्श हो गया। अभ्युदय का मार्ग मिल गया। भगवान महावीर के जीव "नयसार" का यह जन्म सम्यक्त्व बोधि प्राप्ति का प्रथम जन्म माना जाता है। नयसार मानव आयुष्य पूर्णकर सौधर्मकल्प में ऋद्धिशाली देवता बना। वहाँ से एक पल्योपम का आयुष्य पूर्णकर भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी में चक्रवर्ती भरत का पुत्र मरीचि हुआ। तृतीय भव : मरीचि भारतवर्ष के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् भरत के घर में एक सुन्दर पुत्र ने जन्म लिया। उसका मुखमंडल सूर्यकिरण (मरीचि) की भाँति तेजस्वी था, इसलिए नाम रखा गया-“मरीचि"। अयोध्या नगरी में भगवान ऋषभदेव का प्रथम समवसरण लगा है। उद्यान में राजकुमार मरीचि भगवान का प्रभावक प्रवचन सुनता है और उसका मन भोगों को त्यागकर कठोर तपश्चर्या के लिए ललक उठता है। मरीचि भगवान ऋषभदेव का शिष्य बन जाता है। एकादश अंग शास्त्रों का अध्ययन करने के पश्चात् मरीचि कठोर तपस्याएँ करने लगता है, किन्तु मरीचि के स्वभाव में कोमलता और सुखप्रियता के संस्कार थे इसलिए कुछ समय पश्चात् उसका मन श्रमण-जीवन की कठोर साधना से विचलित हो गया। संसार के भोगों से उसे विरक्ति थी, परन्तु शरीर-सुख की आसक्ति भी नहीं छूटी थी। इस कारण उसने श्रमण के कठोर नियमों में परिवर्तन कर लिया। वह सुविधावादी परिव्राजक बन गया। मरीचि धूप और वर्षा से बचने के लिए सिर पर छत्र धारण करने लगा। पदयात्रा में सुखपूर्वक गमन के लिए खड़ाऊँ-पादुका धारण कर लीं। शरीर के पसीने की गंध सहन न होती, इसलिए स्नान करता, चन्दन आदि सुगन्धित लेप करता। श्रमण-वेशभूषा में भी उसने परिवर्तन कर लिया। श्वेत वस्त्रों के बदले गेरुए वस्त्र पहनना प्रारम्भ कर दिया। मरीचि भगवान ऋषभदेव के समवसरण द्वार पर ही उपस्थित रहता था। लोग उसकी विचित्र वेशभूषा देखकर कौतूहलपूर्वक पूछते थे-"क्या आपने कोई नया धर्म प्रवर्तित किया है?" मरीचि बड़ी सरलता के साथ अपनी दुर्बलता को स्वीकारता हुआ कहता-"श्रमण, मन, वचन और काय-त्रिदण्ड मुक्त हैं, मैं त्रिदण्डयुक्त हूँ, अतः मैं प्रतीक रूप त्रिदण्ड रखता हूँ। श्रमण के कठिन व्रत मुझसे नहीं पाले जाते, इसलिए मैंने नियमों में कुछ परिवर्तन कर लिया है। किन्तु मैं भगवान ऋषभदेव को ही अपना आराध्य मानता हूँ। मैं उनका शिष्य हूँ।" ___एक वार सम्राट् भरत भगवान ऋषभदेव का धर्मोपदेश सुनने के लिए आये। उपदेश के पश्चात् भरत चक्रवर्ती ने पूछा-"प्रभो ! आज सम्पूर्ण संसार में आप जैसा ज्ञानादि दिव्य विभूतियों से सम्पन्न कोई दूसरा व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता, परन्तु क्या ऐसा कोई जीव (आत्मा) यहाँ उपस्थित है, जो भविष्य में आपके समान दिव्य विभूति सम्पन्न तीर्थंकर बन सकेगा?" __ भगवान ऋषभदेव ने समाधान देते हुए कहा-“भरत ! इस समवसरण के बाहर तुम्हारा पुत्र मरीचि स्वाध्याय, ध्यान से आत्मा को पवित्र कर रहा है, यद्यपि वह आज परिव्राजक वेश में है, परन्तु भविष्य में एक दिन वही वर्द्धमान नामक चौबीसवाँ तीर्थंकर बनेगा, और मेरे समान ही संसार में सम्यक् धर्म का प्रकाश फैलायेगा।" (चित्र M-1/1) Illustrated Tirthankar Charitra ( १०२ ) सचित्र तीर्थंकर चरित्र लक्ष्मी चन्द्र सूर्य Jointmentiomimitemation orate Fersonaroseromy www.jainelibrary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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