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ध्वजा
कुम्भ
निकला जो पीड़ा से तड़प रहा था।' पार्श्वकुमार ने तत्काल उन्हें णमोकार महामंत्र सुनाया, अरिहंत सिद्ध का शरण दिलाया। शुभ भावों के साथ प्राण त्यागकर नाग नागजाति के भवनवासी देवों का इन्द्र-धरणेन्द्र बना। धरणेन्द्र की रानी पद्मावती हुई। (चित्र P-3/2)
इसी प्रसंग से जनता में कमठ तापस की प्रतिष्ठा खत्म हो गई। वह क्रोध एवं रोष से भन्नाता हुआ अज्ञान तप करता रहा। मरकर असुर कुमारों में मेघमाली देव बना।
इस घटना से पार्श्वकुमार का चिन्तन नई दिशा में मुड़ गया। वे सोचने लगे-“अज्ञान एवं पाखण्डों के चक्कर में पड़ी भोली जनता को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाना चाहिए।" अतः वे संसार त्यागकर दीक्षा लेने के लिए प्रस्तुत हुए। इसी बीच एक दिन वे उद्यान में वन-भ्रमण के लिये गये। वहाँ पर भगवान अरिष्टनेमि के विवाह तथा वैराग्य आदि के भित्ति चित्र देखने से उनका मन शीघ्र ही संयम लेने को उद्यत हो गया। वर्षीदान देकर (पिता की उपस्थिति में) पौष कृष्णा एकादशी के दिन अशोक वृक्ष के नीचे आपने दीक्षा ले ली।
एक बार भगवान पार्श्वनाथ कौशाम्ब वन में ध्यानस्थ खड़े थे। उस समय धरणेन्द्र देव भगवान की वन्दना करने आया। भगवान के ऊपर सूर्य की प्रचण्ड धूप गिरती देखकर उसने नागफनों वाला एक छत्र बना दिया। कहा जाता है-इसी कारण उस स्थान का नाम “अहिछत्र" प्रसिद्ध हो गया। ___ एक बार प्रभु पार्श्वनाथ वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग करके खड़े थे। उस समय मेघमाली असुरदेव उधर से
पद्म निकला। प्रभु पार्श्व को ध्यानस्थ देखकर पूर्व-भव का वैर जाग गया। उसने भगवान को ध्यान से विचलित करने
सरोवर के लिए अनेक प्रकार के उपसर्ग किये। सिंह, हाथी, चीता, दृष्टिविष सर्प, बीभत्स वैताल आदि रूप बनाकर ध्यान भंग करने के प्रयत्न किये, परन्तु प्रभु ध्यान में पर्वतराज की भाँति अविचल खड़े रहे। (चित्र P-4/1)
तब मेघमाली असुर ने क्रुद्ध होकर मूसलाधार वर्षा प्रारंभ की। देखते ही देखते गर्दन तक पानी चढ़ गया। तभी धरणेन्द्र देव का आसन कंपित हुआ। वह अपने उपकारी प्रभु पार्श्वनाथ की सेवा के लिए पद्मावती देवी के साथ तुरंत प्रभु के पास पहुँचा। उसने अपने सात फनों का छत्र बनाया और शरीर की कुण्डली बनाकर कमलासन बना दिया। भगवान उस कमलासन पर जल के ऊपर राजहंस की तरह समाधिस्थ खड़े रहे। (चित्र P-4/2)
धरणेन्द्र देव ने दुष्ट मेघमाली को डाँटा और प्रभु के क्षमामय/करुणामय स्वरूप का दर्शन कराया। मेघमाली ने भयभीत होकर भगवान के चरणों में क्षमा माँगी।
विमान
भवन इस प्रकार छद्मस्थ काल के तिरासी दिन बीत जाने के पश्चात् वाराणसी के आश्रमपद उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ धातकी वृक्ष के नीचे आकर ध्यान लीन हुए। विशुद्धतम भाव श्रेणी पर आरोहण करते हुए चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसी स्थान पर देवताओं ने समवसरण की रचना की। भगवान ने धर्म के स्वरूप पर प्रथम प्रवचन दिया। हिंसा-त्याग, असत्य-त्याग, चौर्य-त्याग तथा परिग्रह-त्याग रूप चातुर्याम धर्म द्वारा आत्म-साधना का मार्ग दिखाया।३
राशि १. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र आदि ग्रंथों में 'एक महानाग' का उल्लेख है। जबकि उत्तरपुराण आदि ग्रंथों में 'नाग-युगल' का
कथन है। 'नाग-युगल' की प्रसिद्धि अधिक है। अतः हमने चित्रों में नाग-युगल ही दिखाया है।
चउप्पन महापुरिस चरिय-आचार्य शीलांक के अनुसार। ३. चातुर्याम धर्म में परिग्रह-त्याग में स्त्री-त्याग (ब्रह्मचर्य) भी सम्मिलित माना जाता था। क्योंकि धन, धान्य की तरह स्त्री भी | निधूम
एक परिग्रह है। इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत को परिग्रह-त्याग में सम्मिलित मानकर चातुर्याम (चार व्रत) धर्म का उपदेश दिया। अग्नि भगवान पार्श्वनाथ
Bhagavan Parshvanath
समुद्र
मल्लि
मुनिसुव्रत
नमि
अरिष्टनेमि
पार्श्व
महावीर
Laternational
jaimenioraryotg