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________________ ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन सुमति पद्मप्रभ सिंह वृषभ "पिताश्री ! आप मुझे आज्ञा दीजिए, मैं कुशस्थलपुर की रक्षा करूँगा।" पिता की आज्ञा लेकर पार्श्वकुमार युद्ध के लिए चल पड़े। तभी शक्र महाराज का सारथी संग्रामिक रथ लेकर उपस्थित हुआ-“कुमार ! शक्रेन्द्र महाराज ने आपकी सेवा में यह आकाशगामी दिव्य रथ भेजा है, आप इस पर आरूढ़ होकर युद्ध के लिए प्रस्थान करें।" पार्श्वकुमार अपने विशाल सैन्य बल के साथ आकाशगामी रथ पर चढ़कर युद्धभूमि में पहुंचे। (चित्र P-2/1) पार्श्वकुमार ने यवनराज के पास सन्देश भेजा-"राजा प्रसेनजित ने महाराज अश्वसेन की शरण ग्रहण की है। शरणागत की रक्षा करना क्षत्रिय का परम धर्म है। और फिर तुम अन्याय कर रहे हो, राजा प्रसेनजित न्याय के पथ पर हैं, अतः अपनी भलाई चाहते हो तो वापस चले जाओ, अन्यथा अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार रहो।" पार्श्वकुमार के सैन्य बल, पराक्रम और प्रचंड तेज के सामने यवनराज भयभीत हो उठा। वह विविध उपहार लेकर उनके चरणों में आया। अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी और राजा प्रसेनजित से मैत्री करके वापस लौट गया। (चित्र P-2/2) __पार्श्वकुमार विजय ध्वजा फहराते हुए वाराणसी लौट आये। राजा प्रसेनजित भी अपनी कन्या प्रभावती | को साथ लेकर आये और महाराज अश्वसेन से पुत्र-वधू के रूप में प्रभावती को स्वीकारने की प्रार्थना की। पार्श्वकुमार विवाह बन्धन में नहीं बँधना चाहते थे। किन्तु माता-पिता की स्नेहपूर्ण भावना का आदर करते हुए | उन्होंने प्रभावती के साथ पाणिग्रहण कर लिया किन्तु फिर भी वे भोगों से अलिप्त रहकर त्याग-संयममय जीवन जीते हुए अधिकांश समय चिन्तन में ही बिताते रहे। एक दिन पार्श्वकुमार ने देखा कि नगर की जनता पूजा-अर्चना की सामग्री लेकर नगर के बाहर जा रही है। पूछने पर पता चला कि कोई कमठ नाम का तापस नगर के बाहर पंचाग्नि तप कर रहा है। उसी को देखने के लिए झुण्ड के झुण्ड चले आ रहे हैं। कमठ का नाम सुनते ही कुमार ने जान लिया-“यह वही कमठ है, और यहाँ पर भी अज्ञान और पाखण्ड फैलाकर धर्म भीरु जनता को हिंसात्मक यज्ञ तथा अज्ञान तप के अंधकार में धकेल रहा है।" कुमार पुष्पमाला अपने अनुचरों को साथ लेकर तापस की धूनी के पास पहुंचे। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ-"अहा ! राजकुमार पार्श्व भी तापस के दर्शनों के लिए आये हैं ?" उनके पीछे भीड़ जमा हो गई। कुमार तापस के नजदीक पहुँचकर बोले-“हे कमठ तापस ! आप यह अज्ञान तप करके स्वयं को व्यर्थ ही कष्ट दे रहे हैं साथ ही यज्ञ-कुण्ड की लकड़ियों में पंचेन्द्रिय जीव-नाग जल रहा है, उसकी हिंसा भी कर रहे हैं ?" __ कुमार की बातें सुनकर तापस आग-बबूला हो उठा-"कुमार ! आप क्या जाने धर्म को, यज्ञ को, तप को? क्यों व्यर्थ ही आप हमारे यज्ञ और तप में विघ्न डाल रहे हैं ?" (चित्र P-3/1) पार्श्वकुमार ने कहा-“धर्म और तप का मूल दया है। आपके यज्ञ-कुण्ड में तो एक नाग-युगल जल रहा है।" तापस ने क्रुद्ध होकर कहा-"यह असत्य है।" तब पार्श्वकुमार ने अपने अनुचरों को आदेश दिया। यज्ञ-कण्ड की जलती लकड़ियों को हटाकर धीरे से चीरा गया तो उसमें से अधजला एक नाग-युगल (जोड़ा) लक्ष्मी चन्द्र Ilustrated Tirthankar Charitra ( ९२ ) सचित्र तीर्थकर चरित्र Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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