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[ ३५२ ] मिथ्यात्वी अहिंसा तथा प धर्म की अपेक्षा मोक्ष मार्ग के देशाराधक कहे गये हैं। उन निरवद्य क्रियाओं के द्वारा वे आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं। आचार्य भिक्षु ने भिक्षुग्रन्थ रत्नाकर खण्ड १ मे कहा है
उपसम खामक खय उपसम भाव निरमला, ते निज गुण जीव रा निर्दोष हो। ते तो देख थकी जीव उजलो, सर्व उजलो ते मोख हो ।
---नव पदार्थ को चोपई, निर्जरा पदार्थ को ढाल ११६३ अर्थात् उपशम, क्षायिक और क्षयोपशम-ये तीनों निर्मल भाव हैं। ये जीव के निर्दोष स्वगुण है। इन से जीव देश रूप निर्मल होता है। वह निर्जरा है और सर्व रूप निर्मल होता है, वह मोक्ष है। यद्यपि मिथ्यात्वी के मोहनीय कर्म का उपशम तथा सानावरणीयादि कर्मों का क्षय नहीं होता है परन्तु झानावरणीयादि चार घातिक कर्मों का क्षयोपशम होता है। उस क्षयोपशम भाव से मिथ्यात्वी निर्मल होता है, वह निर्जरा है। अधिक क्या कहे अहिंसा
और तप से मिथ्याखो अनन्त संसारी से परीत्त संसारी हो जाता है। सद्अनुष्ठान की महिमा निराली है। प्राणि-वध, मृषावाद, चोरी, मैथन और परिग्रह तथा रात्रि भोजन के करने से मिथ्यात्वी बचने का प्रयास करे। ये सब निरवद्य अनुष्ठान हैं मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास में ये सब परम उपयोगी हैं।
निर्जरा आत्म-प्रदेशों की उज्ज्वलसा है ; इस अपेक्षा से वह निरपद्य है। निर्जरा को करनी शुभ योग रूप होने से निर्मल होती है अतः निरवद्य है । आध्यात्मिक विकास के द्वार सबके लिए खुले हुए है अतः मिळ्यात्वी दत्तचित्त होकर सद्अनुष्ठान का अवलम्बन ले।
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