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[ ३३५ ] अर्थात् तुम भले ही संसार की सारी पुस्तकें पढ़ जाओ, पर प्रेम वाकशक्ति द्वारा प्राप्य नहीं है, न तीव्र बुद्धि से और न शास्त्रों के अभ्यास से ही। जिसे ईश्वर की चाह है, उसी को प्रेम की प्राप्ति होगी। आध्यात्मिक जीवन से मिथ्यात्वी पवित्र बनते हैं । आचार्य भिक्षु ने कहा है--
पोथी पढ पढ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
अढाई अक्षर प्रेम का पढे सो पंडित होय ॥ मिथ्यात्वी समता प प्रेम की बातें सीखें। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य की स्तवना करे । धर्म आत्मा से होता है। वह सचमुच मूर्ख है जो गंगा के किनारे रहकर पानी के लिये कुआं खोदता है। कहा है
उषित्वा जाह्नवीतीरे कूप खनति दुर्गत । स्वामी विवेकानंद ने कर्म योग में कहा है-"केवल वही व्यक्ति सबकी अपेक्षा उत्तम रूप से कार्य करता है जो पूर्णतया निःस्वार्थ है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता सब अन्दर ही है।"' सत्ता की दृष्टि से मिथ्यात्वी या सम्यक्त्वी-सब एक समान है। मिथ्यात्वो का कर्तव्य है कि वह अपना आदर्श लेकर उसे अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न करे । झूठ बोलकर, दूसरों को धोखा देकर तथा चोरी करके आजीविकोपार्जन करे। अधिक से अधिक इन सावध कार्यों से बचने का प्रयास करे। जो मिथ्यात्वो किसी दूसरी स्त्री का कलुषित मन से चिंतन करता है, वह घोर नरक में जाता है। मिथ्यात्वी को अत्यन्त निद्रा, आलस्य, देह की सेवा, केशविन्यास तथा भोजन-वस्त्र आसक्ति का यथाशक्ति त्याग करना चाहिये । उसे आहार, निद्रा, भाषण, मैथून इत्यादि सब बातें परिमित रूप से करनी चाहिये। मिथ्यात्वी को चाहिये कि वह अपना यश, पौरुष, दूसरों की बताई हुई गुप्त बात तथा दूसरों के प्रति उसने जो कुछ उपकार किया है, इन सब का वर्णन सर्व साधारण के सम्मुख न करे।
मिथ्यात्वी को चाहिये कि वह यत्नपूर्वक विद्या, यश और धर्म का उपार्जन करे तथा व्यसन (द्यत-कीडादि ) कुसंग, मिण्या भाषण एवं परद्रोह का
(१) कर्मयोग पृष्ठ १।२ (२) कर्मयोग पृष्ठ २६
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