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[ ३१७ ] को दूषण लगावे तो वह मिच्यादृष्टि तियंच का आयुष्य बांधता है।' तियंच का. आयुष्य मिथ्यात्वी मायादि शल्य से बांधते हैं। लोक में देखा जाता है कि कतिपय मिथ्यात्वी सद् वातावरण रहे हुए जिन शासन को अच्छी प्रभावना करते हैं, जन दर्शन व प्राकृत भाषा का भी अच्छा अध्ययन करते हैं। आचार्य अमितगति ने कहा हैजिनशासननिन्दकः नीचैर्गोत्रं प्रबध्नाति ।
--पंचसंग्रह (दि.) परिच्छेद ४ । ८२ अर्थात जो मिथ्यात्वी जिन शासन की निंदा करता है वह नीच गोत्रकर्म को बांधता है । प्रथम गुणस्थान में आयुष्य सहित अष्ट ही कर्म का बंध होता है । अनादि मिण्यादृष्टि जोव करण विशेष से सम्यक्त्व को प्राप्त कर उसो भव में तीर्थकर नाम कर्म का बंध कर सकता है। मियादृष्टि प्रथम गुणस्थान में - मिथ्यात्व, नपुंसक वेद, नरकायु, नरकगति दय, एकेन्द्रियादि जाति कर्म चार सूक्ष्म, साधारण, आप्तप, अपर्याप्त, असंप्राप्तामृगटिका संहनन, हुँडक संस्थान स्थावर-ये सोलह प्रकृति बंध से विच्छिन्न होती है। ये प्रकृति मिथ्यात्व के रहते हुए बंधती है, अंत में विच्छिन्न होती है। जो आयु अशुभ है उसकी उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यादृष्टि जीव परिणाम-संक्लेश के कारण बांधता है। आचार्य अमितगति ने कहा है
सम्यगदृष्टिरसदृष्टिः पर्याप्ती कुरुतः स्थितिम् । प्रकृष्टमायुषो जीवौ शुद्धिसंक्लेशभाजिनौ ।।
-पंचसंग्रह (दि० ) परिच्छेद ४ । २०३ अर्थात आयुष्य कर्म में जो शुभ आयु है उसको उत्कृष्ट स्थिति को सम्यगदृष्टि परिणाम -- विशुद्धि के कारण बांधता है। अशुभ आयुष्य को उत्कृष्ट (१) उन्मार्गदेशको मायी सशल्यो मार्गदूषकः।। आयुरजति तैरश्च शठो मूढो दुराशयः ॥
-पंचसंग्रह (दि.)-परिछेद ४ । ७८ (२) अष्टायुषा विना सप्त षडाद्या मिश्रक विना ।
-पंचसंग्रह (दि०) परिछेद ४ । ८५ पूर्वार्ध (३) पंचसंग्रह ( दि०) परिच्छेद ४ । १६७ । पृ० ७४
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