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[ ३१३ ] अषीत् दर्शन मोहनोय ( अनंतानुबंषी चतुष्क कषाय ) के क्षोण' हो जाने पर तीन भव में नियम से मुक्त हो जाता है। ..
ओपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति चारों ही गतियों में हो सकतो है । अतः सातों ही नारफो में औपशमिक सम्यक्त्व का अभाव नहीं है। मिथ्यात्वो के तीर्थङ्कर नाम कर्म का बंध न होनेपर भी अन्यान्य पुण्यप्रकृति का बंध सद् मनुष्ठान से होता ही रहता है। पंचसंग्रह के (दि.) टीकाकार आचार्य सुमतिकोति ने कहा है
यः सम्यक्त्वात्पतितो,मिथ्यात्वं प्राप्तस्तस्याऽनंतानुबन्धिनां आवलिकामात्रकालं उदयो नास्ति, अन्तर्मुहूर्त काले मरणपि नास्तीति ।
पंचसंग्रह ( दि० ) अषि १ । १०४ । १० ११७ टीका .. अर्थात् जो अनतानुबधी का विसंयोजक सम्यग-दृष्टि जीव सम्यक्त्व को थोड़कर मिथ्यास्व गुणस्थान को प्राप्त होता है उसके एक आवलिका मात्र तक अनंतानुबंधी कषायों का उदय नहीं होता है । तथा सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाले जीव का अन्समुहूर्त काल तक मरण भी नहीं होता है । विशुद्ध लेश्या का जब तक मिथ्यात्वो के प्रवर्तन होता रहता है तब तक नरक गति का आयुष्य नहीं बंधता है। इस रहस्य को समझकर मिथ्यात्वी पशुम लेपया को छोड़े, विशुद्ध लेश्या के प्रवर्तन में चित्त को लगावें । अभव्य में एक प्रथमगुणस्थान ही होता है। (१) खवणाए पट्ठवगो जम्मि भवे णियमदो तदो अण्णे । णादिक्कदि तिणि अवे दसणमोहम्मि खीणम्मि ।।
-पंचसंग्रह (दि०) अधि १। २०३ (२) पंचसंग्रह ( दि० ) अघि १ । २०४ (३) सम्मत्तगुणनिमित्त तित्थयरं ।
-पंचसंग्रह ( दि. ) अघि २ । १२पूर्वार्ध (४) पंचम संग्रह ( दि० ) अधि ४ । ३७५, ३७८, ३८१ (५) अभवन्यजीवेषु मिथ्यात्वं गुणस्थानमेकम् ।
-पंचसंग्रह दि० । ४ । ३८५- टीका
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