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अर्थात् मिथ्यादर्शन से मोहित जीव परमात्मा को नहीं जानता है । यहीं बहिरात्मा है - वह बार बार संसार में भ्रमण करता है—ऐसा जिनेंद्र ने कहा है-- अगव्य मिथ्यात्वी कष्ट मात्र रूप ( प ) का आचरण कर सकते हैं । यशोविजयजी ने कहा है
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कष्टमात्र त्वभव्यानामपि नो दुर्लभं भवे ।
अर्थात् कष्ट मात्र रूप ( तप ) अभव्यको भी दुर्लभ नहीं है । अर्थात् अभव्य
जोव तप रूप धर्म की आराधना कर सकते हैं ।
मिथ्यात्व के क्षेत्र उदय से धर्म अच्छा नहीं लगता है । कहा है
मिच्छत्तं वेदन्तो जीवो विवरीयदंसणो होइ ।
---ज्ञानसार अष्टक ३० । ५
धम्मं रोचेदि हु मधुरं पि रसंजहा जरिदो ॥ - पंचसंग्रह ( दि० ) अधि १ । गा ६
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अर्थात् मिथ्यात्व कर्म का वेदन अर्थात् अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धावाला होता है । उसे तन मोह के उदय से धर्म नहीं रूचता है, जैसे कि ज्वर युक्त मनुष्य को मधुर रस भी नहीं रुचता है ।"
जो क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मिथ्यात्व के संयुक्त होने के कारण विपरीत स्वरूपवाला है उसे विभंग ज्ञान कहा है ।
कतिपय आचार्यों की यह मान्यता है कि मिध्यात्वी - भव्यजीव जब प्रथम बार औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं । उसके अंतर्मुहुर्त बाद ही मिथ्यात्व आता है ! कहा है
सम्मत्तपढमलंभो सयलोवसमा दु भव्वजीवाणं । नियमेण होइ अवरो सव्त्रोवसमा हु देखपसमा वा ॥ सम्मत्तादिमलंभस्साणंतरं णिच्छरण णायव्वो । मिच्छासंगो पच्छा अण्णस्स हु होइ भयणिजो ॥
- पंचसंग्रह ( दि० ) अधि १ । गा १७१-१७२
(१) विवरीय ओहिणार्ण खाओवसमियं × × ×
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(२) पंचसंग्रह ( दि० ) अघि १ । १७०
- पंचसंग्रह ( दि० ) अधि १ । १२० पूर्वार्ध
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