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शुद्धनय की दृष्टि से शुद्धपर्याय प्रत्येक आत्मा में समान है । कहा है
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शुद्धाः प्रत्यात्मसाम्येन पर्यायाः परिभाविताः । अशुद्धाश्वापकृष्टत्वाद, नोत्कर्षाय
अर्थात् विचारित ( शुद्ध नय की दृष्टि से ) शुद्ध पर्याय हरेक आत्मा में समान रूप में है । सर्वनय में मध्यस्थ परिणामवाले मुनि को — अशुद्ध-विभाव रूप पर्याय तुच्छ होने से महामुनि को अभिमान के लिए नहीं होते ।
महामुनेः ॥ ६ ॥ १४२ ॥
-- ज्ञानसार, निर्भयता अष्टक
अतः मिथ्यात्वों इस विषय में हरदम चिंतन करता रहे कि सत्ता की दृष्टि से सब जीवों में केवल ज्ञान दर्शन हैं, मैं अनंत बली हूं अतः कर्म का क्षय करने का प्रयत्न करता रहूँगा । मिध्यात्वो अशुभ ध्यान को छोड़कर धर्म ध्यान ध्यावे | धर्म ध्यान के समय मिथ्यावी के या सम्यक्त्वी के पीत, पद्म और शुक्ल - ये तीन लेयाऐं क्रमशः विशुद्ध होती हैं। परिणामों के आधार पर वे तीव्र या मंद होती है ।' मिवात्वों के आध्यात्मिक विकास में धर्मध्यान का, शुभलेश्या का होना आवश्यक है । धर्मध्यान में उपगत मिथ्यात्वी कषायों से उत्पन्न ईष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित नहीं होता है । कर्मरूपी जंजीर को क्रमशः तोड़ डालता है। जैसे पवन से आहत बादलों का समूह क्षण में हो विलीन हो जाता है वैसे हो ध्यान रूपी पवन से कंपित कर्मरूपी बादल विलीन हो जाते हैं। "
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यदि मिध्यात्वों मिथ्या श्रद्वान से दुष्ट अष्ट कर्मों का उपार्जन तीव्रता से करता है तो वह मुक्त नहीं हो सकता है। श्री योगीन्द्र देव ने कहा है कि
(१) होंतिकम विसुद्वाओ लेस्साओ पीयपम्दसुक्काओ । धम्मकाणोवगयम्स
तिव्वमंदाइभेयाओ ।
(२) ध्यान शतक गा १०२
(३) अष्टप्राभृत, मोक्षप्राभृत गा १५
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- ध्यानशतक, गाथा ६६
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