________________
[ २८५ ] सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि किं मोक्षमार्ग:स्याद्वा न वेत्यन्यतरपक्षापरिग्रहः संशयः।
सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च समदर्शनम् वैनयिकम । हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम् ।
-तत्त्वा • ८।१ सर्वार्थ सिद्धि(१) अर्थात् यही है, इस प्रकार का है, इस प्रकार धर्म और धर्मी मैं एकांत रूप अभिप्राय रखना 'एकांत मिथ्यादर्शन' है । जैसे यह सब बगत पर ब्रह्म रूप ही है, या सब पदार्थ अनित्य ही है या नित्य ही है।
(२) समय को निग्रंथ मानना, केवलो के कवलाहार ( दिगम्बर मत की अपेक्षा) मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना "विपर्यय मिष्यादान' है।
दूसरे उदाहरण-बोव को अजीव मानना, अजीव को जोव मानना ।
(३) सम्यगदर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग चारित्र-ये तीनों मिलकर मोक्ष मार्ग है या नहीं-इसप्रकार संशय रखना 'संशय मिथ्यादर्शन' है।
(४) सब देवता और सब मतों को एक समान मानना 'वनयिक मिथ्यादर्शन' है।
(५) हिताहित को परीक्षा रहित होना 'अज्ञानिक मिथ्यादर्शन' है। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
अदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या। अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तविपर्ययात् ।।
योगशास्त्र. द्वितीय प्रकाश० श्लोक २ अर्थात् जिसमें देव के गुण न हों उसमें देवत्व बुद्धि, गुरु के गुण न हो उसमें गुरुत्व बुद्धि और अधर्म में धर्म बुद्धि रखना मिथ्यात्व है । सम्यक्त्व के विपरीत होने से यह मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व महारोग है, मिथ्यात्व महान अंधकार है, मिथ्यात्व जोष का महाशत्रु है, मिथ्यात्व महाविष है। रोग, अंधकार और विष तो जिन्दगी में एकबार हो दुःख देते है, परन्तु मिथ्यात्व रोग की चिकित्सा न की जाय तो हजारों जन्मों तक पीड़ा देता रहता है । गाढ़मिथ्यात्व से जिसका चित्त घिरा रहता है वह जीव तत्व-अतत्व का भेद नहीं जानता ।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org