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से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उब्वट्टित्ता कहिं गछि हिति, कहि उववज्जिहति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिङिमहिति, अंतं काहिति ।
जाव
--भगवई श ७ । उ । सू २०६-२११
टीका - तदा तस्य नागनप्तुरेकः प्रियबालवयस्यो रथमुशलं संग्रामयन्नेकेन पुरुषेण गाढप्रहारीकृतः सन्नस्थामो यावदधारणीयमिति कृत्वा वरुणं नागनप्तारं संग्रामात्प्रतिनिष्कममाण पश्यति दृष्वा तुरगान्निगृहाति निगृह्य यथा यावत्तुरगान् विसर्जयति विसृज्य पटसंस्तारकमारोहत्यारुद्य पौरस्त्याभिमुखो यावदजलिकृत्वैव मवादीत्यानि मम प्रिय बालवयस्य वरुणस्य नागनप्तुः शीलानि, व्रतानि, गुणा, विरतयः, प्रत्याख्यान पौषधोपवासा स्तानि ममापि भवन्त्विति कृत्वा सन्नाहपट्टे मोचयति मोचवित्वा शल्योधुरणं करोति कृत्वानुपूर्व्या कालं गतः, × × ×।
वरुणस्य भ० ! नागनस्तु प्रिय बालवयस्य कालमासे कालं कृत्वा क्य गतः क्वोत्पन्न? गौ० । सुकुले प्रत्याजातः । स ( बालवयस्य) भ० ! ततोनन्तरं मुद्व (युवा) क्व गमिष्यति क्वोत्पत्स्यति ? गौ० ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावदन्तं करिष्यति ।
अर्थात् वरुणनागनत्तुआ का एक प्रिय बाल मित्र भी रथमूसल संग्राम में युद्ध करता था । वह भी एक पुरुष द्वारा घायल हुआ, शक्ति रहित और बलरहित, वीर्यरहित बने हुए उसने सोचा- " अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा । उसने वरुणनागनत्तुआ को युद्ध स्थल से बाहर निकलते हुए देखा । वह भी अपने रथ को वापिस फिराकर रथ मूसल संग्राम से बाहर निकला और जहाँ वरुणनागनत्तुआ था, वहाँ आकर घोड़ों को रथ से खोलकर विसर्जित कर दिया । फिर वस्त्र का संधारा बिछाकर उसपर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठा और दोनों हाथ जोड़कर इसप्रकार बोला - हे भगवान् ! मेरे प्रिय बाल मित्र वरुणनागनत्तुआ के जो शीलव्रत गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्माख्यान और पौषधोपवास हैं - वे सब मुझे भी होवें - ऐसा कहकर कवच खोलकर शरीर में लगे हुए वाण को निकाला और अनुक्रम से वह भी काल धर्म को प्राप्त हो गया ।"
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