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"सं जइ ताव तुमे मेहा ! तिरिक्खजोणिय भाव मुवागणं अपडिलद्ध ं सम्मत्तरयणं लभेणं से पाए पाण्णाणुकंपयाएं जार्व अंतरा चैव संधारिए णो चेवणं णिक्खित्ते किमंग पुण तुमं मेहा ! इयाणि विपुलं कुलसमुन्भवे णं ।
-नायाधम्मकहाओ श्रु १ । अ० १ । सू १८६
अर्थात् भगवान् महावीर ने मेघ अवगार को ( मेघकुमार जब गृहस्थपन को छोड़कर भगवान् के पास दीक्षित हो जाता है वेब भगवान् महावीर किसी प्रसंग पर संबोधित करते हुए कहते हैं ।) संबोधित करते हुए कहा है कि है मेघ ! तुम तियंच के भव में हाथी के भव में सम्यक्त्व रूपी रत्न को प्राप्त नहीं कर सके, परन्तु मिथ्यात्व अवस्था में अनुकम्पा के द्वारा अपरित संसार से संसार परीत्त किया । धर्मानुष्ठानिक क्रिया के बिना जीव संसार परीत्त नहीं होता है, अतः संसार परीत्त होने की क्रिया सावद्य नहीं हो सकती ।
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निरवद्य करणी करने की भगवान् ने आशा दो है, चाहे कोई भी व्यक्ति करे । यदि मिथ्यात्वों के कर्मों का क्षयोपशम नहीं होता, तो उनके धर्म के प्रति रुचि भी नहीं होती । मिथ्यात्वी के धर्म के प्रति रुचि होना, चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम है तथा वह जो धार्मिक क्रिया में सक्रिया में अपना बलपराक्रम काम में लेता है वह भी बलवीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है ।
सक्रियाओं के द्वारा कर्मों का क्रमशः क्षय होते-होते वह अनंतानुबंधी चतुष्क (क्रोध - मान-माया-लोभ) व दर्शन मोहनीय त्रिक का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम कर क्षायिक या क्षायोपशमिक अथवा औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है ।
(१८) उववाई सूत्र में मिध्यात्वी के विषय में कई एक ऐसे प्रसंग उपलब्ध होते हैं, जिन पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना पड़ेगा ।
हस्वितापस आदि तापसों का ( हाथी को मारकर, उसके भोजन से बहुतकाल ध्यतीत करने वाले ) का उपपात - - उत्कृष्ट ज्योतिषी देव ( एक पल्योपम और एक लाख वर्ष की स्थिति ) का है ।
गंगाकूला -- वाणपस्था तावना x x x इत्थिताबसा xxx बहुई
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