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________________ [ २३७ ] निरवद करणी सुध प्राक्रम कह्यों रे, ते जिण आगना माहिलो जाणरे । शेष करणी असुध प्राक्रम कह यो लाल, तिण सू पाप कर्म लागे आणरे ॥४॥ मिथ्याती निरवद करणी करे रे, सिणरी करणी कहें छे असुध रे । ते विवेक विकल सुध बुध बिना रे लाल, त्यांरी मिष्ट हुई छे बुध रे ॥११॥ -भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर पृ० २६१२६४ यदि मिथ्यात्वी संयति को सुपात्र दान देता है, शीलवत का पालन करता है तथा मास-क्षमण आदि तपस्या करता है तो उससे कर्म-निर्जरा होती है। निरवद्य करणी को शुद्ध पराक्रम कहा है तथा जिन आज्ञा के अंतर्गत की करणी हैं। अशुद्ध पराक्रम से पाप कर्म का बंधन होता है। जो मिथ्यात्वी को निरवद्य करणी को अशुद्ध कहता है वह विवेक से विकल है मानो उसको बुद्धि भ्रष्ट हो मान और अज्ञान दोनों साकार उपयोग हैं और दोनों का स्वभाव वस्तु को विशेष धर्मों के साथ जानना है । जो ज्ञान मिथ्यात्वी के होता है, उसे अज्ञान कहते हैं। ज्ञान और अशानमें इतना हो अंतर है, विशेष नहीं। जैसे कुएं का जल निर्मल ठंडा, मीठा एक सा होता है पर ब्राह्मण के पात्र में शुद्ध गिना जाता है और मतांग के पात्र में अशुद्ध, वैसे हो मिथ्यात्वी के जो ज्ञान गुण प्रकट होता है, वह मिथ्यात्व सहित होने के कारण अज्ञान कहाजाता है। वही विशेष बोध जब सम्यक्स्वी के उत्पन्न होता है, तब शान कहलाता है। ज्ञान-अज्ञान दोनों उज्ज्वल क्षयोपशमिक भाव हैं। वे आत्मा की निर्मलता-उबलता के द्योतक हैं । ज्ञान-अज्ञान को प्रकट करने वाली क्षयोपशम जन्य निर्मलता निर्जरा है। मिथ्यात्वी के लब्धि वीर्य और करण वीर्य दोनों होते हैं। वोर्य की प्राप्ति मिथ्यात्वी को अंतराय कर्म के क्षयोपशम से होती है। लब्धि वीर्य जीव की सत्तात्मक शक्ति है और करण वीर्य-क्रियात्मक शक्ति है-योग है मन, पचन, और काय की प्रवृत्ति स्वरूप है। यह जीव और शरीर दोनों के सहयोग से उत्पन्न होती है। लब्धि वीर्य जीव की स्वभाविक शक्ति है और करण वीर्य उस शत्ति Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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