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[ २२५ ] महाँ पर 'चतुर्थ पुरुष' अर्थात वह मिथ्यात्वी वो किंचित् भी सक्रिया का व्यावहारिक दृष्टि में आचरण नहीं करता, उसका संक्षेप में यहाँ वर्णन कर देना उचित होगा । यह मिथ्यात्वी सम्यगशान, सम्यगदर्शन, सम्बग चारित्र रूप रत्नत्रय में से किसी की भी आराधना नहीं करता । वह हरदम महारंभ तथा महापरिग्रह में तल्लीन रहता है, कर से कर कर्मों का करने वाला होता है तथा जो अत्यन्त क्रोधी, मानी, मायावो, लोमो, कलहकारी विषयासक्त, दोषी सपा चुगलखोर होता है-वह हरदम पाप कार्यो में तत्पर रहता है-हिंसा करने में, झूठ बोलने में, चोरी करने में, व्यभिचार सेवन करने में, परिग्रह का संचय करने में हरदम लवलीन रहता है तथा उन कार्यो के करने में अपना परम धर्म भी समझ बैठता है । वह भिष्यात्वो महाकपट से झूठ बोलने में हिचकिचाता नहीं है। वह व्यक्तियों को हरदम यही प्रेरणा देता रहता है कि क्षुद्र प्राणियों की हिंसा करने में कोई दोष नहीं है ।' हिंसादि पाँच आस्रव द्वारों के सेवन करने से कभी महासुख की प्राप्ति हो सकती है । वह मिष्यात्वो कट्टर नास्तिक होता है। जो पर पुरुष को संपत्ति को अनेक छल-छिद्र से लूटने वाला होता है, उसे धर्म के प्रति आन्तरिक द्वेष होता है । जिसके अध्यवसाय-परिणाम प्रायः कृष्णादि तीन हीन लेश्या के होते हैं । तथा वह मिथ्यात्वो कहता है कि उपदेश को तो मेरे से लो। इस प्रकार जो मिथ्यात्वी महान् पापों के करने में भी संकुचाता नहीं है, उसे भगवान ने मोक्ष मार्ग का सर्वविराधक कहा है अर्थात् उस मिथ्यात्वो ने शान, दर्शन तथा चारित्र में से किसी की भी किंचित भी आराधना नहीं की है, अतः वह किंचित् भी मोक्ष मार्ग की साधना करने का अधिकारी नहीं है। इसके विषय में गौतम गणधर के प्रश्न करने पर प्रत्युत्तर में भगवान् ने कहा है-हे गौतम ! जिस प्रकार नाव के बिना अथाह समुद्र को पार करना महा कठिन हो जाता है उसी प्रकार हे गौतम ! इस महा घोर मिथ्यात्वी के लिये संसार रूपी भवभ्रमण से पार हो जाना महा कठिन हो जाता है । इस मिथ्यात्वी के लिये भगवान ने बड़ा ही रोचक दृष्टांत दिया है जीव कपी गेंद के समान अपने कृत महाघोर कर्मों रूपी डंडों से अनंतकाल से भव रूपी समुद्र में
१-याचारांग सूत्र २६
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