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________________ [ १६० ] तिण करणी ने असुध कहें छे पापीया रे, ते निश् चेइ पूरा मूढ अयांण रे ॥५३ -भिक्षुग्रन्थ रत्नाकर (खंड १)--मिथ्यातीरी निर्णय री ढाल २ । पृ० २६२ अर्थात् मेघकुमार ने अपने पूर्व भव-हाथी के भव में सम्यक्त्व रहित होने पर भी पैर को अढ़ाई दिनरात तक ऊँचा रखा परन्तु खरगोश को नहीं मारा। यह अहिंसा का ज्वलंत उदाहरण है कि तियंच मिथ्यात्वी भी अहिंसा के प्रतिपालन करने के अधिकारी हैं फलस्वरूप उस अहिंसा के कारण वह हाथी संसारअपरीत्त से संसार परीत्त बना । निरवद्य करणी करते हुए मिथ्यात्वी सम्यक्त्व को प्रात कर क्रमशः निर्वाण को प्राप्त कर लेता हैं। प्रज्ञापना में आचार्य मलयगिरि ने कहा है__"तस्मान्मिध्यादृष्टय xxx असंयताश्च सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणाम शून्यत्वात् । —प्रज्ञापना पद २०१सू १४७०।टीका अर्थात् मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व रहित सअनुष्ठान होता है, अत: उनके चारित्र का संवर नहीं होता । यदि सम्यक्त्वी ने एक भी प्राणी के वध की विरति की है तो उसके देशतः चारित्र रूप संवर होगा हो ।' भगवान ने चतुर्थ गुणस्थान में भी संवर नहीं कहा है तब प्रथम गुणस्यान में संवर होने का प्रश्न नहीं उठ सकता। यदि एक द्रव्य अयवा पर्याय में मिथ्यात्व होता है ; तब भी मिथ्यादर्शन विरमण (संवर रूप अवस्था) असंभव है ।२ श्री मज्जयाचार्य ने प्रथम चार गुणस्थान में संवर नहीं माना है परन्तु अहिंसा और तर-दोनों धर्म स्वीकृत किया है। कहा है___ "संयम ते संवर धर्म अनेतप ते निर्जरा धर्म छ। अने त्याग बिना जीव री दया पाले ते अहिंसा धर्म छै । अने जीव हणवारा त्यागने संयम पिण कहीजे अने अहिंसा पिण कहीजै। अहिंसा तिहाँ संयम नी भजना छ। अने संयम तिहाँ अहिंसा नी नियमा छै।" १-भगवती श १७ उ २ । सू २६ २-प्रज्ञापना पद २२ सू १६४० । टोका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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