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[ १७६ ] कहीं कहीं संज्ञी तिर्यच पंचेद्रिय ( स्थल वर अथवा नभचर ) युगलियों का आयुष्य भी शुभ माना गया है। जलचर, उरपरिसर्प तथा भुजपरिसर्प संज्ञो पंचेन्द्रिय युगलिये नहीं होते हैं । तिर्यञ्च रूप युगलिये का आयुष्य भो मिटमात्वो बाँधते है-कहा हैतस्यापि युगलिकतिर्यगपेक्षया प्रधानत्व, पुण्यप्रकृतित्वात् ।
-नवतत्त्वप्रकरणम ॥१४-वृत्ति अर्थात् तिर्यञ्चों में युगलिक तिथंच भी आते हैं ; उनका आयुष्य शुभ है। उनकी अपेक्षा से तिर्यञ्चायुष्य को शुभ कहा है। आचार्य भिक्षु ने नवपदार्थ को चौपई, पुण्य पदार्थ की ढाल १, गाथा ७ में कहा है
केइ देवता ने केइ मिनख रो, सुभ आउखो पुन ताय हो लाल । जुगलीया तियंच रो आउखो, दीसे छ पुन रे माय हो लाल -
-भिक्षग्रन्थ रत्नाकर पृष्ठ ११७ अर्थात् कई देवता, कई मनुष्यों के शुभ आयुष्य होता है जो पुण्य को प्रकृति हैं। तिर्यञ्च युगलियों का आयुष्य भी पुण्य रूप मालूम होता है। पुण्य रूप आयुष्य का बंधन मिथ्यात्वी सक्रियाओं के द्वारा करते हैं । तियं च पंचेन्द्रिय मिथ्यात्वी भी सक्रियाओं से शुभायु बौधते हैं।
इस अनादि संसारचक्र में आत्मा ने अनेक बार जन्म-मरण किये। किन्तु अपने स्वरूप को भूलकर परगुणों में रत होने से यह जीव दुःखों का ही अनुभव करता रहा। श्रुत, श्रद्धा और संयम से पराङ, मुख होकर पुद्गल द्रव्यों को अपनाता हुआ मनुष्य अपने गुणों को भूल गया। इसी से अज्ञान वश होकर वह शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव कर रहा है। उन दुःखों से छूटकारा पाने के लिये सम्यगशान, सम्यगदर्षान, सम्यगचारित्र की आराधना एकमात्र उपाय है। जैसे पुष्पों की प्रतिष्ठा - सुगंध से होती है वैसे आत्म-द्रव्य की पूजा प्रतिष्ठा रत्नत्रय से होती है। अतः मिथ्यात्वी रलत्रयी की आराधना का अभ्यास करे।
जैसे पागे में पिरोई गई सुई गूम हो जाने पर भी मिल पाती है वैसे ही बानी व्यक्ति का मन इधर-उधर चला जाता है तो वह फिर मोड़ ले लेता है।
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