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[ १६० ] पविठ्ठरस अणते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदसणे समुप्पण्णे ।
-जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति सू ७० भरत चक्रवर्ती को आरिसाभवन में शुभपरिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय, विशुद्ध लेश्या से ईहा-अपोह मार्गणा-गवेषणा करते हुए सदावरणीय कर्मों ( केवल ज्ञानावरणीय कर्म ) के क्षय होने के अणुत्तर केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ।
११ -- शिवराजर्षि को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तपस्या करते हुए शुभलेश्यादि से विभंग अज्ञान उत्पन्न हुआ।
तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स छळं छठेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं जाव-आयावेमाणस्स पगइभहयाए जाव विणीययाए अण्णया कयावि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-पोहमग्गण-गवेसणं करेमाणस्स विभंगे णामं नाणे समुप्पण्णे।
-भग० श० ११।उह। सू ७१ अर्थात् निरंतर बेले-बेले की तपस्यापूर्वक दिकचक्रवाल तप करते यावत आतापना लेने और प्रकृति की भद्रता यावत् विनीतता से शिवराजर्षि को किसी दिन सदावरणीय (विभंगवानावरणीय ) कर्मो के क्षयोपशम से ईहा, अपोह मार्गणा और गवेषण करते हुए विभंग अशान हुआ।
१२-अणगार गजसुकुमाल श्रीकृष्ण के संसारपक्षीय छोटे भाई थे। उन्होंने कुमारावस्था में दीक्षा ग्रहण की थी। भगवान अरिष्टनेमि की आज्ञा से महाकाल नामक पमशान में काया को कुछ नमाकर चार बगुल के अन्तर से दोनों पैरों को सिकोड़कर एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए एक रात्रि की महा प्रतिमा (भिक्षु प्रतिमा ) स्वीकार कर ध्यान में खड़े रहे। सोमिल ब्राह्मण द्वारा शिर पर अंगारों को रखे जाने से गणसुकमाल अनगार के शरीर में
महा वेदना उत्पन्न हुई। यह वेदना अत्यन्त दुःखमयी, बाज्वल्पमान और . असह्य पी। फिर वे गणसुकुमाल अनगार उस सोमिल ब्राह्मण पर लक्ष . मात्र भी वेष नहीं करते हुए समभावपूर्वक महा घोर वेदना को सहन करने लगे।
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