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[ 15 ] विशेषों या जाति विशेषों में किसी एक प्रकार को प्रधानता रहो तो किसी में किसी दूसरे प्रकार की। प्रवृत्तिकादी मार्गों के साथ-साथ निवृत्तिाधान मार्ग भी चलते रहे, भोतिकवादिता के साथ-साथ आध्यत्मिकता भी चलती रही।
और जैसे-जैसे धर्म के प्रत्येक प्रकार का विकास होता गया, तत्तर मानवो संस्कृति एवं सम्बता का भी विकास होता गया। इतिहास-दर्शन के प्रकाण्ड मनीषी प्रो. आरनोल्ड जोसेफ टायनबो भी यही कहते हैं कि"सभ्यता को उपज नहीं है, सम्बता धर्म की उपज है। धर्म को बाह्य. आडम्बर से नहीं जोड़ना चायिये, वरन ऐसे आत्मा की उपलब्धियों की दृष्टि से आंकना चाहिये । वह जनसाधारण की अंफोम नहीं, वरन् प्रेरणा का स्त्रोत है।" एक अन्य विद्वान के शब्दों में धर्म एक कल्पबेली है--उसके आसपास मनगढन्त बातों के फैक्टस मत उगाओ । और डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार, "धर्म उस अग्नि की, जो प्रत्येक व्यक्ति के भो जलमी है, बाला को प्रज्वलित करने में सहायता देता है। धर्म का प्रयोजन लोगों का मत बदलना नहीं, जीवन बदलना है। धर्म जाति वर्ण, और अहम् भाव को जन्म नहीं देता, वह तो मानव मन को आन्तरिक और उदात्त सम्भावनाओं के बीच सेतुबंध का कार्य करता है। किन्तु जो स्वयं रिक्त है, अर्थात् भौतिकता में डुबे हुए हैं, उन्हें इस गुरु पद का आभास ही नही हो पाता । उनके सामने तो ऐहिकता के इन्द्रजाल बिखरे होते हैं और उन्हीं में जीना उनका अभीष्ट होता है।" ___ जो लोग स्वयं को भौतिकवादी, विज्ञानवादी या घोर नास्तिक कहते हैं और धर्म के नाम से भी चिढ़ते हैं, वे भी कतिपय नैतिक नियमों और सदाचरण में तो विश्वास करते ही हैं। मनुष्य स्वभावतः एक सामाजिक प्राणी है। वह एकाको रह ही नहीं सकता-सदेव से दूसरे मनुष्यों के साथ रहता आया है। परिवार, कुल, आदिम कबीलों से लेकर वर्ण, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, समाज, राष्ट्र, वसुधैव कुटुम्बकम् तक का विकासक्रम उसको सामाजिकता का ही प्रतिफल है । जब एक व्यक्ति परिवार, कबोले, जाति अथवा किसी भी समाज का अंग होकर रहता है तो उसे अपनो स्वेच्छाचारिता को सीमित करना पड़ता है, अपने स्वार्थों का कुछ त्याग करना पड़ता है और उक्त समाज के दूसरे सदस्यों का भी ख्याल रखना पछुता है। स्वर-पर हित की दृष्टि से इन पारस्परिक
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