________________
[ १३६ ] किया है वह संसार अपरिमित कहलाता है। इसके दो भेद है-यथा-अनादि अनंत और अनादिसांत । जो कभी भी संसार से मुक्त नहीं होंगे वे अनादि अनंत-संसार-अपरिमित्त मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं तथा जो संसार का अंतकर सिद्ध बुद्ध यावत मुक्त होंगे वे अनादिसांत-संसार–परिमित मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं । फलितार्थ यह हुआ कि संसारपरीत्त जीव-तीनों दृष्टिवाले होते हैं लेकिन संसार अपरीत्त जीव केवल मिथ्यादृष्टि ही होते हैं ।
आगमों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं कि सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना मिथ्यात्वी सद् क्रिया के द्वारा संसार परीत्त किया है
यथा-(१) मेघकुमार ने अपने पूर्व भव में सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना खरगोश पर अनुकम्पा लाने से नहीं मारने से, संसारपरीत्त कर मनुष्य की आयुष्य बांधी।
(२) सुबाहु कुमार ने अपने पूर्व भव सुमुख गाथापति के भव में निग्रन्थ को वन्दन---नमस्कार किया-शुद्ध आहार-पानी दिया फलस्वरूप मिथ्यात्व अवस्था में अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना संसारपरॊत्त कर मनुष्य की आयुष्य बांधी।
(३) शालभद्रजी ने अपने पूर्व जन्म में शुद्ध निम्रन्थ को शुद्ध आहार पानी दिया फलस्वरूप मिथ्यात्व अवस्था में संसारपरोत्त कर मनुष्य की आयुष्य बांधी। _कृष्णपाक्षिक जीव चाहे अभवसिद्धिक हों, चाहे भवसिद्धिक हों-दोनों संसार-अपरीत है तथा शुक्लपाक्षिक जीव संसार अपरित भी हैं तथा संसार-परित भी है।
अनादि मिथ्यादष्टि जीव भी अपने उसी भव में सद् क्रियाओं के द्वारा-संसार परीत्त होकर पन्ततः सम्यक्त्व को प्राप्त कर, चारित्र ग्रहण कर, केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हो सकते हैं । अतः मिथ्यात्वी सक्रियाओं के आचरण
१-शातासूत्र अ. १ (तएणं तुमं मेहा ! साए पाणाणकंपयाए ४ संसार
परित्तीकए मणुभसाउए निबद्ध ।) २-सुख विपाक सूत्र अ १ .
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org