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अतः उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है कि मिध्यात्वी असद् अनुष्ठान से नरक गति और तियंचगति का आयुष्य बाँधते हैं तथा सद् अनुष्ठान से मनुष्यगति तथा देवगति का आयुष्य बांधते हैं ।
मिथ्यादृष्टि नारकी के असंख्यात अध्यवसाय कहे गये हैं । वे अध्यवसाय शुभ भी होते हैं और अशुभ भी । इसी प्रकार यावत् मिध्यादृष्टि वैमानिक दंडकों में जानना चाहिए। नारकी में सम्यग्हष्टि से मिथ्यादृष्टि असंख्यात गुण अधिक होते है । जीव के प्रति समय भिन्न-जिन्न अध्यवसाय होते हैं ।" आयुष्य का बन्धन प्रशस्त अध्यवसाय में भी होता है और अप्रशस्त अध्यवसाय में भी ।
ज्योतिष्क देवों का आयुष्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य या मिध्यादृष्टि तियंच पंचेन्द्रिय बाँधते हैं | आयुष्य बांधने बाद मिध्यात्व से निवृत्त होकर सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं । मरण प्राप्ति के समय सम्यक्त्व हो भी सकता है । कहा है 1
ज्योतिष्का हि द्विविधाः मायिमिध्यादृष्ट् युपपन्नकाः अमायिसम्यग्दृष्ट् युपपन्नकाश्च तत्र मायानिर्वर्त्तितं यत्कर्म मिध्यात्वादिकं तदपि माया, कार्ये कारणोपचारात् माया विद्यते येषां ते मायिनः, अतएव मिध्यात्वोदयात् मिथ्या - विपर्यस्ता दृष्टिः- वस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते मिध्यादृष्टयो मायिनश्च ते मिध्यादृष्ट्यश्च x x x तत्र ये मायमिथ्या युपपन्नकास्तेऽपि मिध्यादृष्टित्वादेव व्रतविराधनातो अज्ञानतयोवशाद्वा ।
-प्रज्ञापना पद ३५। सू २०८३ - टीका अर्थात् ज्योतिष्क देव दो प्रकार के हैं - मायिमिध्यादृष्टि उपपन्नक और अमायसम्यग्दृष्टि उपपन्नक | माया से बंधा हुआ मिथ्यात्वादिकर्म भो कारण में कार्य के उपचार से माया कहा जाता है । जिसको माया का सद्भाव है वह मायी । इस हेतु से मिध्यात्व के उदय से मिथ्या विपरीतहष्टि वस्तुतत्त्व की प्रतिपत्ति - बोध जिसको है वह मायिमिध्यादृष्टि । मिध्यादृष्टि से व्रतविराधना में या अज्ञान तप से मायिमिध्यादृष्टि ज्योतिष्क वस्तुवृत्त्या मिष्याखी सद्व्यनुष्ठानिक क्रियाओं से होते हैं ।
१ प्रशापना पद ३०१३ टोका ।
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देवों में उत्पन्न होते हैं ।
ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न
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