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[ ४६ ] मेल तथा पंक कीचड़ से होने वाले परिदाह से पोड़े समय तक या बहुत समय तक अपनी आत्मा को क्लेशित करते हैं। अपनी आत्मा को क्लेशित करके मृत्यु के समय मरकर वाणव्यंतर देवों में उत्पन्न होते हैं।
अस्तु मोक्ष की अभिलाषा के बिना जो सद् क्रिया की जाती है वह अकाम निर्जरा है । इसके विपरीत आत्मशुद्धि की भावना से-मोक्ष अभिलाषा से यदि मिथ्यात्वो ब्रह्मचर्यादि की प्रति-पालना करते हैं तब सकाम निर्जरा होती है । राजवार्तिक में गट्टाकलंकदेव ने कहा है
तत्र ज्ञानावरणक्षयोपशमापादितानि त्रीण्यपि ज्ञानानि मिथ्याज्ञानव्यपदेशमाञ्जि भवन्ति । तस्य विकल्पाः प्राग्व्याख्याताः। ते सर्व समासेन द्विधा व्यवतिष्ठन्ते-हिताहितपरीक्षाविरहिताः परीक्षकाश्चेति । तत्रैकेन्द्रिवादयः सर्वे संज्ञिपर्याप्तकवर्जिताः हिताहित. परीक्षाविरहिताः पर्यासका उभयेऽपि भवन्ति ।
__ --तत्त्वार्थराजवा० अ६-१-१२ अर्थात् मिथ्यादृष्टि के ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाले तीनों ज्ञान-मिथ्याज्ञान होते हैं । सामान्यतया मिथ्यादृष्टि हिताहित परीक्षा से रहित और परीक्षक-इन दो श्रेणियों में विभत्त किये गये हैं । संज्ञी पर्याप्तक को छोड़कर एकेन्द्रियादि हिताहित परीक्षा से रहित हैं और संज्ञीपर्याप्तक हिताहित परीक्षा से रहिस और परीक्षक दोनों के प्रकार के होते हैं। परन्तु ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षयोपशम सभी मिथ्यात्वी में होता है। उनमें से एकेन्द्रियादि जीवों के सकाम निर्जरा नहीं होती, अकामनिर्जरा होती है तथा संज्ञी पर्याप्तक जीवों के सकाम निर्जराव अकाम निर्जरा-दोनों प्रकार की निजरा होती है।
३ : मिथ्यात्वी और आश्रव मिथ्यात्वी के पुण्य का भी आश्रव होता है। यह निश्चित है कि शुभयोग की प्रवृत्ति के बिना पुण्याश्रव नहीं होता है। योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है---
सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा। शौच बालतपश्चेति सवेद्यस्य स्युराश्रवाः ॥४॥
-योगशास्त्र प्रकाश ४, श्लोक ७८ टीका
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