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शस्त्र-परिज्ञा
१. आतंक-दर्शन--हिंसा से होने वाले आतंक का दर्शन । २. अहित-बोध-हिंसा से होने वाले अहित का बोध । ३. आत्म-तुला-सब जीवों के सुख-दु:ख के अनुभव की समानता । जैसे
अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। जैसे दूसरों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है, वैसे ही अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है।
सूत्र-१७३ ३८. स्वच्छन्दचारी और विषयासक्त साधु स्वयं आचार का पालन न करते हुए दूसरों को आचार का उपदेश देते हैं।
सूत्र-१७५ ३९. प्रवृत्ति का मुख्य स्रोत अन्तःकरण है। वह प्रज्ञा से संचालित होता है। उसके नियामक तत्त्व दो हैं-मोह और निर्मोह। मोह से नियंत्रित प्रज्ञा असत्य होती है-धर्म के विपरीत होती है। निर्मोह से नियंत्रित प्रज्ञा सत्य होती है-धर्म के अनुकूल होती है। जिसकी प्रज्ञा सत्य होती है, वह शरीर, वाणी और भाव से ऋजु तथा कथनी और करनी में समान होता है। इस प्रकार की सत्य प्रज्ञा से संचालित अन्तःकरण ही हिंसा और विषय से विरक्त हो सकता है। कोई भी साधक केवल बाह्याचार से हिंसा और विषय से विरक्त नहीं हो सकता। पूर्ण सत्यप्रज्ञा युक्त अन्तःकरण से ही वह उनसे विरक्त हो सकता है।
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