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शस्त्र-परिज्ञा ३९. मैं कहता हूं--
वह [जलकायिक ] लोक [के अस्तित्व] को अस्वीकार न करे और न अपनी आत्मा को अस्वीकार करे। जो [जलकायिक] लोक [के अस्तित्व ] को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा को अस्वीकार करता है। जो अपनी आत्मा को अस्वीकार करता है, वह [जलकायिक] लोक [ के अस्तित्व] को अस्वीकार करता है।
जलकायिक जीवों की हिंसा ४०. तू देख ! प्रत्येक [संयमी साधक] हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी
४१. [और तू देख ! ] कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं' यह निरूपित करते हुए भी
[गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-जलकायिक जीवों की हिंसा करते हैं।]
४२. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से जल-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर जलकायिक
जीवों की हिंसा करता है; [वह केवल उन जलकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है।
४३. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है।
४४ वर्तमान जीवन के लिए,
प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए
४५. कोई साधक स्वयं जलकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता
है या करने वालों का अनुमोदन करता है ।
४६. वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है;
वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है।
४७. वह (संयमी साधक) उसे (हिंसा के परिणाम को) समीचीन दृष्टि से
समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है।
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