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________________ शस्त्र-परिज्ञा ११ २५. भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है यह (पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा ) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है । २६. [फिर भी ] मनुष्य जीवन आदि के लिए [ पृथ्वीकायिक जीवनिकाय की हिंसा में ] आसक्त होता हैं । २७. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है; [ वह केवल उन पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु ] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है । पृथ्वीकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध २८. मैं कहता हूं [ पृथ्वीकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल ( अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयव - हीन) मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है । ] शस्त्र से भेदन - छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय- विकल मनुष्य को [ कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव को होती है ] ४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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