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शस्त्र-परिज्ञा
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२५. भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात
हो जाता है
यह (पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा ) ग्रन्थि है,
यह मोह है,
यह मृत्यु है,
यह नरक है ।
२६. [फिर भी ] मनुष्य जीवन आदि के लिए [ पृथ्वीकायिक जीवनिकाय की हिंसा में ] आसक्त होता हैं ।
२७. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है; [ वह केवल उन पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु ] नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है ।
पृथ्वीकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध
२८. मैं कहता हूं
[ पृथ्वीकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल ( अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयव - हीन) मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है । ] शस्त्र से भेदन - छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय- विकल मनुष्य को [ कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव को होती है ] ४
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