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शस्त्र-परिज्ञा
१४. [अज्ञानी मनुष्य] इस लोक में व्यथा का अनुभव कर रहा है।
पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा १५. तू देख ! आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर [पृथ्वीकायिक प्राणियों को]
परिताप दे रहे हैं। १६. (पृथ्वीकायिक) प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों में आश्रित हैं।'' १७. तू देख ! प्रत्येक [संयमी साधक हिंसा से विरत हो] संयम का जीवन जी
रहा है। १८. [और तू देख ! ] कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं' यह निरूपित करते हुए भी
[गृहवासी जैसा आचरण करते हैं—पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा
करते हैं।] १९. वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर पृथ्वी
कायिक जीवों की हिंसा करता है; (वह केवल उन पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु) नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा
करता है। २०. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। २१. वर्तमान जीवन के लिए,
प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दु.ख-प्रतिकार के लिए।
२२. कोई साधक स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता
है या करने वालों का अनुमोदन करता है। २३. वह (हिंसा) उसके अहित के लिए होती है;
वह (हिंसा) उसकी अबोधि के लिए होती है ।१२ २४. वह (संयमी साधक) उसे (हिंसा के परिणाम को) समीचीन दृष्टि से
समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है। X विरोधी शस्त्र (देखें, टिप्पण सूत्र १९) से अनाक्रान्त पृथ्वी, पर्वत वा खनिज धातुओं के जीव पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं । पृथ्वी आदि का निर्माण इन जीवों से ही होता है । केवल वही पृथ्वी या मिट्टी निर्जीव होती है, जिसके जीव किसी विरोधी द्रव्य के योग से च्युत हो जाते हैं।
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