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आयारो
३१६ से मुक्त होकर अनशन करना--यह 'आनुपूर्वी अनशन' है।
श्लोक-३ २०. प्रस्तुत श्लोक में भाव-संलेखना (कषाय का अल्पीकरण) और द्रव्य-संलेखना (आहार का अल्पीकरण) की विधि निर्दिष्ट है। आहार के अल्पीकरण की विधि इस प्रकार है__ संलेखना द्वादश वर्षीय होती है । उत्तराध्ययन (३६।२५१-२५५) के अनुसार इस संलेखना का पूर्ण क्रम इस प्रकार है
प्रथम चार वर्ष-विकृति-परित्याग अथवा आचाम्ल।
द्वितीय चार वर्ष-विचित्र तप-उपवास, बेला, तेला आदि और पारण में यथेष्ट भोजन।
नौंवे और दसवें वर्ष-एकान्तर उपवास और पारण में आचाम्ल। ग्यारहवें वर्ष की प्रथम छमाही-उपवास या बेला। ग्यारहवें वर्ष की द्वितीय छमाही-विकृष्ट तप-तेला, चोला आदि तप।
समूचे ग्यारहवें वर्ष में पारण के दिन-आचाम्ल । प्रथम छमाही में आचाम्ल के दिन ऊनोदरी की जाती है और दूसरी छमाही में उस दिन पेट भर भोजन किया जाता है।
बारहवें वर्ष में-कोटि-सहित आचाम्ल अर्थात् निरन्तर आचाम्ल अथवा प्रथम दिन आचाम्ल, दूसरे दिन कोई दूसरा तप और तीसरे दिन फिर आचाम्ल ।
बारहवें वर्ष के अन्त में-अर्द्ध-मासिक या मासिक अनशन, भक्त-परिज्ञा आदि।
निशीथ चूणि के अनुसार बारहवें वर्ष में क्रमशः आहार की उस प्रकार कमी की जाती है, जिससे आहार और आयु एक साथ ही समाप्त हों। उस वर्ष के अन्तिम चार महीनों में मुंह में तेल भर कर रखा जाता है। मुखयन्त्र विसंवादी न हो-नमस्कार मन्त्र आदि का उच्चारण करने में असमर्थ न हो, यह उसका प्रयोजन है।
(उत्तरायणाणि, भाग २, टिप्पण, पृ० २६३-२६४)
श्लोक-२३ २१. काम दो प्रकार का होता है-मदन-काम और इच्छा-काम । प्रस्तुत श्लोक में दोनों प्रकार के कामों में आसक्ति न रखने का निर्देश दिया गया है। जीवन के अन्तिम क्षणों में 'निदान' का प्रसंग आ सकता है। अगले जन्म में मैं सर्वोच्च पद प्राप्त करूं' इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हो सकता है। किन्तु, निष्काम साधक को इस प्रकार के संकल्पों से बचना चाहिए।
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