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शस्त्र-परिज्ञा
या अनुदिशाओं में अनुसंचरण करता है; (अपने कृत-कर्मों के) साथ सब दिशाओं और सब अनुदिशाओं में जाता है; अनेक प्रकार की योनियों का संधान करता है; और नाना प्रकार के स्पर्शों (आघातों) का प्रतिसंवेदन करता है-अनुभव करता है।
प्रवृत्ति के स्रोत ९. इस विषय (कर्म-समारम्भ) में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है।
१०. वर्तमान जीवन के लिए,
प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए, [मनुष्य कर्म-समारम्भ करता है।]"
संवर-साधना ११. लोक में [होने वाले] ये सब कर्म-समारम्भ परिज्ञातव्य होते हैं-जानने और
त्यागने योग्य होते हैं।
१२. लोक में होने वाले] ये कर्म-समारम्भ जिसके परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा [कर्म-त्यागी] मुनि होता है ।
-ऐसा मैं कहता हूं।
द्वितीय उद्देशक
अज्ञान
१३. [जो] मनुष्य [विषय-वासना से पीड़ित है, [वह ज्ञान और दर्शन से]
दरिद्र है । वह [सत्य को] सरलता से समझ नहीं पाता, [अतः] अज्ञानी बना रहता है।
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