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________________ विमोक्ष २६३ १०२. वह लाधव का चिन्तन करता हुआ [स्वाद का विसर्जन करे । १०३. अस्वाद-लाघव वाले मुनि के [स्वाद-अवमौदर्य तथा काय-क्लेश] तप होता है। १०४. भगवान् ने जैसे स्वाद-लाघव का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जान कर, सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करेकिसी की अवज्ञा न करे। संलेखना १०५. जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है 'मैं इस समय [समयोचित क्रिया करने के लिए] इस शरीर को वहन करने में ग्लान (असमर्थ) हो रहा हूं।' वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे। आहार का संक्षेप कर कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) को कृश करे। कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला, फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर-शांत करे।१७ इंगिणिमरण १०६. [वह संलेखना करने वाला भिक्षु शारीरिक शक्ति होने पर] गांव, नगर, खेड़ा, कर्वट, मडंब,पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सन्निवेश, निगम या राजधानी में प्रवेश कर घास की याचना करे। उसे प्राप्त कर गांव आदि के बाहर एकान्त में चला जाए । वहां जाकर जहां कीट-अण्ड, जीवजन्तु, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफंदी, दलदल या मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थान को देखकर, उनका प्रमार्जन कर, घास का बिछौना करे । बिछौना कर उस समय 'इत्वरिक अनशन' करे ।१८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_03
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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