SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२७ प्रथम उद्देशक ज्ञान का आख्यान १. सम्बुद्ध पुरुष मनुष्यों के बीच में [ज्ञान का] आख्यान करता है।' २. जिसे ये जीव-जातियां सब दिशाओं में भली-भांति ज्ञात होती है, वही पुरुष ___ असाधारण ज्ञान का आख्यान करता है। ३. जो मनुष्य [ज्ञान-प्राप्ति के लिए] उद्यत हैं, मन, वाणी और शरीर से संयत हैं, जिनका मन एकाग्र है और जो प्रज्ञावान् हैं, उनके लिए सम्बुद्ध पुरुष [मुक्ति-मार्ग का] आख्यान करता है। ४. कुछ महावीर पुरुष इस प्रकार के ज्ञान के आख्यान को सुनकर [संयम में] विशेष पराक्रम करते हैं। अनात्म-प्रज्ञ का अवसाद ५. तुम देखो-जो आत्म-प्रज्ञा शून्य हैं, वे [संयम में] अवसाद को प्राप्त हो ६. मैं कहता हूं : जैसे-~-एक कछुआ है और एक द्रह है] । कछुए का चित्त द्रह ' में लगा हुआ है। वह द्रह सेवाल और पद्म के पत्तों से आच्छन्न है । वह कछुआ [मुक्त आकाश को देखने के लिए विवर को प्राप्त नहीं हो रहा है। ७. जैसे वृक्ष [सर्दी, गर्मी, आंधी आदि कष्टों को सहते हुए भी] अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग [गृहवास को नहीं छोड़ते] । कुछ लोग दरिद्र कुल में उत्पन्न हैं और कुछ सम्पन्न कुल में । वे रूपादि विषयों में आसक्त होकर [नाना प्रकार के कष्टों के आने पर करुण विलाप करते हैं, [फिर भी गृहवास को नहीं छोड़ते । ऐसे व्यक्ति [करुण विलाप के] हेतुभूत दुःख से मुक्त नहीं हो पाते। ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy