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आयारो
सूत्र-१०२ ४१. ऋज का अर्थ सरल, संयमी या संयम में तत्पर है । यह इस आशय की सूचना देता है कि ज्ञानी पुरुष ऋजुता व संयम भावनापूर्वक हिंसा से बचे, छलना या भय के कारण नहीं।
सूत्र-१०३ ४२. तुमने जिस रूप में दूसरे जीव को वेदना दी है, उसी रूप में तुम्हें वेदना भुगतनी होगी-अनुसंवेदन का यह अर्थ भी किया जा सकता है।
सूत्र-१०४ ४३. जो जानता है वह आत्मा है । जिसके द्वारा जानता है, वह भी आत्मा है। इन दो सत्रों में आत्मा की दो परिभाषाएं की गई हैं । पहली परिभाषा द्रव्याश्रित है और दूसरी गुणाश्रित । चेतन द्रव्य है । चैतन्य उसका गुण है। चेतन ज्ञाता है । चैतन्य ज्ञान है । ज्ञानी और ज्ञान दोनों आत्मा हैं । चेतन प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु चैतन्य प्रत्यक्ष होता है। कमरे के भीतर बैठा आदमी सूर्य के प्रकाश और किरणों को देखकर सूर्य के अस्तित्व को जान लेता है । वैसे ही ज्ञान की क्रिया से ज्ञानी जान लिया जाता है । हम ज्ञेय को जानते हैं । ज्ञेय को ज्ञान से जानते हैं, इसलिए ज्ञेय को जानने के द्वारा ज्ञान को जान लेते हैं। ज्ञान ज्ञानी का आलोक है। इसलिए ज्ञान को जानने के द्वारा हम ज्ञानी को जान लेते हैं। ___आत्मा द्रव्य है और ज्ञान गुण है। द्रव्य और गुण न सर्वथा भिन्न होते हैं, और न सर्वथा अभिन्न । गुण द्रव्य में ही होता है, इसलिए वे अभिन्न भी हैं। आधार और आधेय की दृष्टि से वे भिन्न भी हैं।
ज्ञान आत्मा का लक्षण है। जहां आत्मा है, वहां ज्ञान है और जहां ज्ञान है, वहां आत्मा है। इस दृष्टि से आत्मा और ज्ञाता की अभिन्नता बतलाई गई है। आत्मा ज्ञान के द्वारा जानती है, इस दृष्टि से ज्ञान भी आत्मा है।
प्रश्न होता है-यदि आत्मा और ज्ञान को अभिन्न माना जाए, तो ज्ञान की भांति एक आत्मा भी अनेक प्रकार की हो जाएगी। इस प्रश्न को ध्यान में रखकर बताया गया-ज्ञान के अनेक परिणमन होते हैं । आत्मा जिस समय ज्ञान के जिस परिणमन से परिणत होती है, उसी के आधार पर आत्मा का व्यपदेश (व्यवहार या नामकरण) होता है। श्रोत्रेन्द्रिय के ज्ञान में परिणत आत्मा श्रोत्रेन्द्रिय कहलाती है। मन के ज्ञान में परिणत आत्मा मन कहलाती है । घट, पट, रथ, अश्व आदि ज्ञेयों में परिणत ज्ञान के आधार पर आत्मा को घटज्ञानी, पटज्ञानी, रथज्ञानी, अश्वज्ञानी कहा जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र भगवती (६।१७४)
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