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लोकसार
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७९ से ८४ तक के सूत्रों में वासना-शमन के ६ उपाय बतलाए हैं। उनमें तीन आहार से सम्बन्धित तथा ऊर्ध्व-स्थान शारीरिक क्रिया, ग्रामानुग्राम विहार श्रम और संकल्प-त्याग मानसिक स्थिरता से सम्बन्धित हैं। ये सभी उपाय हैं, किन्तु जिस व्यक्ति के लिए जो अनुकूल पड़े, उसके लिए वही सर्वाधिक अभ्यास करने योग्य है।
चूर्णिकार के मतानुसार यह मोह-चिकित्सा अबहुश्रुत के लिए है । बहुश्रुत की मोह-चिकित्सा उसे स्वाध्याय-अध्ययन-अध्यापन आदि में संलग्न कर करनी चाहिए।
सूत्र--८५ ३२. कुछ लोग पहले कष्ट झेलते हैं, तब उन्हें इन्द्रिय-विषय उपलब्ध होते हैं।
और कुछ लोग इन्द्रिय-विषयों को पहले प्राप्त हो जाते हैं, फिर कष्ट झेलते हैं। विषय सेवन से पहले या पीछे दण्ड जुड़ा हुआ है।
सूत्र-८९ ३३. द्रह चार प्रकार के होते हैं
१. जिसमें से स्रोत निकलता है, किन्तु मिलता नहीं । २. जिसमें स्रोत मिलता है, निकलता नहीं। ३ जिसमें से स्नोत मिलता भी है और निकलता भी है। ४. जिसमें से न कोई स्रोत निकलता है और न कोई मिलता है।
द्रह के रूपक द्वारा आचार्य का वर्णन किया गया है। आचार्य आचार्योचित गुणों से प्रतिपूर्ण, समभाव की भूमिका में स्थित, उपशांत मोहवाला, सब जीवों का संरक्षण करता हुआ, श्रुत ज्ञानरूपी स्रोत के मध्य में स्थित होता है-श्रत को लेता भी है और देता भी है।
सूत्र-९० ३४. चूर्णिकार के अनुसार चौदह पूर्वो को मानने वाला प्रज्ञावान् तथा अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान का अधिकारी 'प्रबुद्ध' कहलाता है। वर्तमान काल में प्राप्त शास्त्र ज्ञान का पारगामी विद्वान् भी 'प्रबुद्ध' कहलाता है।
३५. 'पश्यत' का प्रयोग दर्शन या चिन्तन की स्वतंत्रता का सूचक है। सूत्रकार कहते हैं-'मैंने कहा, इसलिए तू स्वीकार मत कर, किन्तु अपनी कुशाग्री बुद्धि व तटस्थ भाव से इस विषय को देख।"
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