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लोकसार
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सूत्र-१० ५. मोक्ष के दो साधन हैं-विद्या और आचरण । (आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खो।-सूयगडो, १।१२।११)। अविद्या मोक्ष का साधन नहीं है। जो दार्शनिक अविद्या से मोक्ष होना बतलाते हैं, वे मोक्ष के असाधन को उसका साधन बतलाकर संसार के प्रवाह में चले जाते हैं।
सूत्र-२०-२१ ६. महावीर की साधना का मौलिक स्वरूप अप्रमाद है। अप्रमत्त रहने के लिए जो उपाय बतलाए गए हैं, उनमें शरीर की क्रिया और संवेदना को देखना मुख्य उपाय है। जो साधक वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है।
यह शरीर-दर्शन की प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है। सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्तर की ओर प्रवाहित करने का प्रथम साधन स्थूल शरीर है । इस स्थूल शरीर के भीतर तेजस् और कर्म-ये दो सूक्ष्म शरीर हैं। उनके भीतर आत्मा है । स्थूल शरीर की क्रियाओं और संवेदनों को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तेजस् और कर्म-शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है। जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन की ओर आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है।
सूत्र-२८-२६ ७. एक बार कुछ मुनि भगवान् महावीर के पास आए और जिज्ञासा के स्वर में बोले-'भन्ते ! जो मुनि तपस्वी, संयमी और ब्रह्मचारी हैं, उन पर भी रोग का आक्रमण होता है, यह क्यों ?'
भगवान् ने कहा -'आर्यो ! तुम्हें संयम का हेतु और रोग का हेतु जानना चाहिए।'
'भन्ते ! वह क्या है ?'
'संयम का हेतु चारित्र मोह कर्म का विलय है और रोग का हेतु वेदनीय कर्म है। दोनों के हेतु भिन्न हैं; इसलिए संयमी के रोग हो भी सकता है। वह केवली के भी हो सकता है।
'भन्ते ! रोग उत्पन्न होने पर क्या करना चाहिए ?' 'उन्हें सहन करना चाहिए।'
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