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सम्यकत्व
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___ इस औदारिक (स्थूल) शरीर की कृशता यहां विवक्षित नहीं है । एक साधु ने उपवास के द्वारा शरीर को कृश कर लिया। उसका अहं कृश नहीं हुआ था। वह स्थान-स्थान पर अपनी तपस्या का प्रदर्शन करता और प्रशंसा चाहता था । एक अनुभवी साधु ने उसकी भावना को समझते हुए कहा – 'हे साधु ! तुम इन्द्रियों, कषायों और गौरव (अहंभाव) को कृश करो। इस शरीर को कृश कर लिया, तो क्या हुआ ? हम तुम्हारे इस कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करेंगे।'
इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरू। णो वयं ते पसंसामो किसं साहु सरीरगं ।।
-निशीथ भाष्य, गा० ३७५८ । भगवान् महावीर ने कर्म-शरीर को कृश करने की बात कही है । स्थूल शरीर कृश हो या न हो, यह गौण बात है।
सूत्र-३४ ६. प्रस्तुत सूत्र में 'कामात् क्रोधोऽभिजायते' (गीता, २१६२) यह तथ्य प्रतिपादित है । इष्ट विषयों का वियोग और अनिष्ट विषयों का संयोग क्रोध की उत्पत्ति का मुख्य हेतु है।
सूत्र-३५ ७. क्रोध से मानसिक दुःख उत्पन्न होता है और क्रोध से क्रोध के संस्कार निर्मित तथा पुष्ट होते हैं । वे भविष्य में भी दुःख का सृजन करते हैं। यह ज्ञान भी क्रोध-विवेक का एक आलम्बन है ।
सूत्र-४० ८. मुनि-जीवन की साधना के लिए दो प्रारम्भिक अनुबंध हैं
१. सम्बन्ध का त्याग। २. इन्द्रिय और मन की उपशांति।
इस स्थिति के प्राप्त होने पर वह साधना की तीन भूमिकाओं से गुजरता है। प्रथम भूमिका प्रवजित होने से लेकर अध्ययन-काल तक की है। उसमें वह ध्यान का अल्प अभ्यास और श्रुत-अध्ययन के लिए आवश्यक तप करता है।
दूसरी भूमिका शिष्यों के अध्यापन और धर्म के प्रचार-प्रसार की है। इसमें वह ध्यान की प्रकृष्ट साधना और कुछ लम्बे उपवास करता है।
तीसरी भूमिका शरीर-त्याग की है । जब मुनि आत्म-हित के साथ-साथ संघहित कर चुकता है, तब वह समाधि-मरणके लिए शरीर-त्याग की तैयारी में लग जाता है। उस समय वह दीर्घ-कालीन ध्यान और दीर्घकालीन तप (पाक्षिक,
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