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________________ ११८ आयारो इस सूत्र की व्याख्या का दूसरा नय इस प्रकार है - यह सम्भव है कि जो एक ( जीव - निकाय) की हिंसा करता है, वह छह ( जीव - निकायों) में से किसी भी ( जीव - निकाय) की हिंसा कर सकता है (- - सब की हिंसा करता है) । साधक के लिए सब जीवों की हिंसा निषिद्ध है । यह सर्व निषेध अहिंसा के चित्त का निर्माण करता है । एक जीव- निकाय की हिंसा विहित और अन्य जीवनिकायों की हिंसा निषिद्ध हो, तो अहिंसा के चित्त का निर्माण नहीं हो सकता । जो व्यक्ति एक जीव - निकाय की हिंसा करता है, उसके चित्त में अन्य जीवनिकायों के प्रति मैत्री सघन नहीं हो सकती । भगवान् महावीर के युग में कुछ परिव्राजक यह प्रतिपादित करते थे- हम केवल पानी के जीवों की हिंसा करते हैं, अन्य जीवों की हिंसा नहीं करते । कुछ श्रमण निरूपित करते थे—हम भोजन के लिए जीव- हिंसा करते हैं, अन्य प्रयोजन के लिए जीव- हिंसा नहीं करते । भगवान् महावीर के शिष्य जंगल के मार्ग में विहार करते, तब बीच में अचित्त पानी नहीं मिलता । अनेक मुनि प्यास से आकुल हो स्वर्गवासी हो जाते। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठा हो कि कदाचित् विकट परिस्थिति आने पर सचित्त पानी पी लिया जाए तो क्या आपत्ति है ? इन सब निरूपणों और प्रश्नों को सामने रखकर भगवान् ने यह प्रतिपादित किया कि जिस साधक के चित्त में किसी एक जीव-निकाय की हिंसा की भावना अत्यक्त रहती है, उसका सर्वजीव अहिंसा के पथ में प्रस्थान नहीं होता । अतः साधक की मैत्री सघन होनी चाहिए। उसके चित्त में कभी भी किसी जीव - निकाय की हिंसा की भावना शेष नहीं रहनी चाहिए । सूत्र - १५५ ३०. मनुष्य कर्म करता है । कर्म का अपने-आप में कोई उद्देश्य नहीं है । वह उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है । जीवन की कुछ आवश्यकताएं हैं । कर्म के द्वारा उनकी पूर्ति की जाती है । आवश्यकता की पूर्ति के लिए कर्म करना एक बात है और कर्म के लिए आवश्यकता खोजना दूसरी बात है । मन आसक्ति से भरा होता है, तब मनुष्य कर्म की आवश्यकता उत्पन्न करता है । उससे समस्याओं का विस्तार होता है । अनासक्त व्यक्ति के कर्म उपशान्त हो जाते हैं, आवश्यकता-भर बचते हैं | साथ-साथ कर्म से होने वाले कर्म-बन्ध भी उपशान्त हो जाते हैं । सूत्र - १६० ३१. अरति को सहन न करना -- यह संकल्प- शक्ति ( will power ) के विकास का सूत्र है। जिसके प्रति मनुष्य का आकर्षण नहीं होता, उसके प्रति प्रयत्नपूर्वक Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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