________________
लोक-विजय
७५
१८. मनुष्य उपभोग के बाद बचे हुए [धन] से कुछ गृहस्थों के भोजन के लिए
[दूध, दही आदि पदार्थों की] सन्निधि और [चीनी, घृत आदि पदार्थों का] सन्निचय करता है।
१९. उसके पश्चात् [अर्थ-संचय होने पर भी] एकदा (भोग काल में) मनुष्य के
शरीर में रोग के उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं [-वह उसका भोग कर ही नहीं पाता] ।
२०. वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन एकदा [कुष्ठ जैसे रोग के होने
पर] उसको छोड़ने की पहल करते हैं। बाद में [अवसर आने पर] वह भी उन्हें छोड़ देता है।
२१. [प्रियता की स्थिति में ऐसा न होने पर भी] हे पुरुष ! वे तुम्हें वाण या
शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।
२२. दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है-यह जानकर
२३. अवस्था [यौवन और शक्ति] अतिक्रान्त नहीं हुई है-यह देखकर
२४. हे पंडित ! तू क्षण को जान ।
२५. जब तक श्रोत्र का प्रज्ञान पूर्ण है,
जब तक चक्षु का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक घ्राण का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक रसना का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक स्पर्श का प्रज्ञान पूर्ण है,
२६. इन नाना रूप प्रज्ञानों के पूर्ण रहते हुए पुरुष आत्महित का सम्यक् अनुशीलन करे।
-ऐसा मैं कहता हूं।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org