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लोक-विजय
६. उसके पश्चात् एकदा ( जीवन के उतरार्द्ध में ) [ इन्द्रियां] मूढ़ता उत्पन्न कर देती हैं— श्रवण, दर्शन आदि लुप्त हो जाते हैं ।
७. वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन एकदा ( वृद्धावस्था आने पर ) उसके तिरस्कार की पहल करते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार करने लग जाता है |
८. [ हे पुरुष ! ] वे स्वजन तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो ।
९. वह [वृद्ध मनुष्य ] न हास्य-विनोद के योग्य रहता है, न क्रीड़ा के, न रतिसेवन के और न शृंगार के ।
१०. इस प्रकार [वृद्धावस्था में होने वाली दशा को जानकर ] पुरुष संयम ( अहोविहार) के लिए समुद्यत हो जाए ।"
११. इस [ प्राप्त ] अवसर की समीक्षा कर धीर पुरुष मुहूर्तभर भी प्रमाद न करे ।
१२. अवस्था बीत रही है और यौवन चला जा रहा है ।
१३. जो इस जीवन के प्रति प्रमत्त है, [ वह इसे नहीं समझ पा रहा है ] ।
१४. [ इसीलिए ] वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, प्राणवध और वास[ इन प्रवृत्तियों] में लगा रहता है।
१५. 'मैं वह करूंगा, जो आज तक किसी ने नहीं किया' - यह मानते हुए [ वह हिंसा में प्रवृत्त होता है ] |
१६. वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन एकदा ( शैशव या अर्थाभाव में ) उनके पोषण की पहल करते हैं। बाद में वह भी उनका पोषण करता है ।
१७. [ ऐसा होने पर भी ] हे पुरुष ! वे तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें ताण या शरण देने में समर्थ नहीं हो ।
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