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भारतीय वाङमय में योगसाधना और योगबिन्दु पृथक् अनुवाद लिखे। इसके बाद आचार्य यशोमित्र ने अभिधर्मकोशभाष्य पर एक विस्तृत व्याख्या अभिधर्मकोशभाष्य व्याख्या नामक ग्रन्थ लिखा, जो भाष्य के साथ पहले जापान से प्रकाशित हुआ है। पश्चात् १९७२ में वाराणसी से श्रीद्वारिकादास शास्त्री ने इसे पुनः सम्पादित किया है । अभिधर्मकोशभाष्य अपने मूल में १९६७ में जायसवाल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पटना से भी प्रकाशित हुआ है। इसके सम्पादक प्रह्लाद प्रधान हैं।
अभिधर्मकोशभाष्य में कुल मिलाकर ६०० कारिकाएं हैं। इन्हें आठ परिच्छेदों में बांटा गया है। धातु, इन्द्रिय, लोक, कर्म, अनुशय, ज्ञान, पुद्गल और ध्यान इन विषयों पर इसमें विस्तार से तर्क सम्मत अध्ययन किया गया है । लगता है यह ग्रन्थ अत्यन्त गूढ़ है कारण कि अभी तक इसका देवनागरी में अनुवाद नहीं किया जा सका।
४. अभिधर्मदीप
यह विशाल काय विभाषा ग्रन्थ अभिधर्मकोश को आधार बनाकर लिखा गया है। इसके लेखक आचार्य दीपाकर हैं जिनका समय ४५०५५० के मध्य माना जाता है। आचार्य दीपाकर ने अभिधर्मदीप पर स्वयं एक व्याख्या अथवा वृत्ति भी लिखी थी। इसी वृत्ति के साथ इस ग्रन्थ का पूरा नाम अभिधर्मदीपवृत्ति मिलता है।
इस ग्रन्थ की खोज पं० राहुल सांकृत्यायन ने अपनी तिब्बत की यात्रा के दौरान की थी जो मूल रूप में आज भी बिहार रिसर्च इंस्टीट्यूट पटना में सुरक्षित है । विस्तृत भूमिका के साथ इसे सम्पादित कर डा० पद्मनाभ जैनी ने १६५७ में उक्त शोध संस्थान से ही प्रकाशित कराया है।
इस गन्थ में ५६७ कारिकाएं और आठ अध्याय हैं। स्कन्ध, आयतन, धातु, इन्द्रिय, लोक, कर्म, अनुशय, मार्ग, ज्ञान और समाधि इन विषयों का इसमें विस्तार से सम्यक् विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त अभिधर्मदीप में महापुरुष के ३२ लक्षणों तथा ८० अनुव्यञ्जनों का भी वर्णन मिलता है। यही इसकी अपनी विशेषता भी है।
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