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भारती र वाङमय में योगसाधना और योगबिन्दु
योग की चर्चा के साथ-साथ 'अष्टांगयोग' की व्याख्या, गरिमा तथा योग से प्राप्त होने वाली अनेक लब्धियों का वर्णन किया गया है। योगवाशिष्ठ के छह प्रकरणों में योग के विभिन्न सन्दभों की व्याख्या आख्यानकों के माध्यम से की गई है।
'योग' शब्द इस समय तक आते-आते इतना व्यापक और प्रचलित हो गया था कि गीता के अठारह के अठारह अध्याय 'योग' और साधना के उपदेशों से ओतप्रोत है। वहां मिलता है जैसे-'ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवत् गीता उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुन-विषादयोगो नाम प्रथमोऽध्याय : ।
. पातञ्जलयोगदर्शन चित्तवृत्तिनिरोध को योग बतलाता है। इसके अतिरिक्त न्यायदर्शन' में भी योग को उचित स्थान दिया गया है। वैशेषिकदर्शन के प्रेणना कणाद ने यम-नियम आदि पर काफी जोर दिया है जबकि ब्रह्मसूत्र के तीसरे अध्याय में आसन एवं ध्यान आदि योग के अङ्गों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसी कारण से सम्भवत: महिष ने इसका नाम ही साधनापाद रखा है।'
सांख्यदर्शन में भी योग विषयक अनेक सूत्र मिलते हैं। तन्त्रयोग के अन्तर्गत आदिनाथ ने हठयोग सिद्धान्त की स्थापना की है। इसका उद्देश्य यौगिक क्रियाओं द्वारा शरीर के अंग-प्रत्यंग पर प्रभुत्व तथा मन की स्थिरता प्राप्त करना है। महानिर्वाणतन्त्र और षटचक्रनिरूपण
१. दे० भागवतपुराण २. २८. ११. १५. १६. २० २. दे० योगवाशिष्ठ, वैराग्य, मुमुक्षु , व्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति,
उपशम और निर्वाण प्रकरण ३. दे० श्रीमद्भगवद्गीता, अ० प्रथम का अन्त ४. दे० पात यो० द०, १,२ ५. दे० न्यायदर्शन, ४. २. ३६; ३. २. ४०; ४०. २. ४६ ६. दे० वैशेषिकदर्शन, ६. २. २. ८ ७. दे० ब्रह्मसूत्र, ४.१.७.११ ८. रागोपहित ध्यानम् । सांख्यसूत्र, ३. ३०
वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धि । वही, ३. ३१ ६. महानिर्वाणतंत्र, अध्याय-३
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