________________
248
योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना को समीक्षात्मक अध्ययन
आत्मा भी कहते हैं। इनके अनुसार जीव, आत्मा, चेतना और चैतन्य ये सभी एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं।
जीव के विषय में कहा गया है कि आयुष्कर्म के योग से जो जीते हैं एवं जीवेगें उन्हें 'जीव' कहा जाता है। दूसरे प्रकार से जो प्राणों के आधार पर जिए हैं, जी रहे हैं और जीएंगे, उन्हें जीव कहा जाता है। प्राण के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव प्राण । बल, इन्द्रिय, आयु य और श्वासोच्छवास 'द्रव्यप्राण' कहे जाते हैं जबकि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ‘भावप्राण माने जाते हैं।'
जैन दर्शन में जीव का लक्षण ‘उपयोग' (चेतना व्यापार) किया गया है।
आत्मा अनेक शक्तियों का पुञ्ज है, उनमें प्रमुख शक्तियां हैंज्ञानशक्ति, वीर्यशक्ति, संकल्पशक्ति आदि । दूसरे शब्दों में इन्हें उपयोग कहा जाता है—द्रव्यं कषाययोगादुपयोगो ज्ञानदर्शने चेति । जीव स्वरूपतः अनादि निधन, अविनाशी और अक्षय है। द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से उसका स्वरूप कभी नष्ट नहीं होता, तीनों कालों में एक समान रहता है, इसलिए वह नित्य है किन्तु पर्यायाथिकनय की दृष्टि से वह भिन्नभिन्न रूपों में परिणत होता रहता है। अतः अनित्य है। जैसे सोने के मुकुट, कुण्डल आदि अनेक आभूषण बनते हैं। मूल रूप में फिर भी वह १. जीवः प्राणधारणे अजीवन जीवन्ति जीविष्यन्ति आयुर्योगेनेति निरूवतरशाद्
जीवाः । जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः । प्रशमरति, भाग-२,
पृ० १ २. पाणेहि चहि जीवदि जीवस्त दि जो ह जीविदो पूव्वं ।
सो जीवो, पाणा पुण बलमिंदियमाऊ-उस्सासो ॥ पंचास्तिकाय, गा० ३० ३. जीवो उवओगलक्खणो। उत्तरा० २८.१०
तथा—उपयोगो जीवस्य लक्षणम् ॥ तत्त्वार्थसूत्र २.८ सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम् । प्रशमरति, भाग-२, - श्लोक १६४ ४. नाणं च दसणं चेव चरित्तं च तवो तहा ।
वीरियं उवयोगो य एवं जीवस्स लक्खणं ॥ उत्तरा० २८.११ ५. दे० प्रशमरति, भाग २, श्लोक १६६
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org