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________________ 242 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन (क) मनोयोग के चार भेद १. सत्यमनोयोग ३. मिथमनोयोग २. असत्यमनोयोग ४. और व्यवहार मनाय ग (ख) वचनयोग के चार भेद १. सत्य वचन योग ३. मिश्रवचन योग २. असत्य वचन योग ४ और व्यवहार वचन योग (ग) काययोग के सात भेद (१) औदारिक काययोग (२) औदारिक मिश्र काययोग, (३) वैक्रियकाय योग (४) वक्रिय मिश्र काययोग, (५) आहारक काय योग, (६) आहारक मिश्रकाय योग और (७) कामणकाय योग इस प्रकार ये कुल मिलाकर योग के १५ भेद हैं । गणस्थान और योगों का परस्पर एक दूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि इन योगों में से प्रत्येक जीव में (एक इन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक) कोई न कोई योग अवश्य पाया जाता है। इस प्रकार योग का जो आधार है, वही आत्मा गुणस्थान का भी आधार है। अत: इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रत्येक जीव में तीन प्रमुख योगों से से कम से कम एक योग और उसके भावों के अनुसार कोई न कोई गणस्थान अवश्य रहता है। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि चौदवे गुणस्थान में पहुंचकर आत्मा का पूर्ण विकास होने से वह सिद्ध, बुद्ध पद को प्राप्त हो जाता है। ___ एक समय में एक जीव में गुणस्थान तो एक ही होता है, किन्तु योगों की संख्या १ से लेकर १५ तक हो सकती है। ६ से १३ गुणस्थान तक की श्रेणी पार करना छठा गुणस्थान है--'अप्रमत्तसंयत', इसमें साधक पांच महाव्रत अहिंसा आदि का पालन करते हुए अपने भावों को विशुद्ध से विशुद्धतर बमाता जाता है । यद्यपि इसमें संकल्पों को रोकने वाली, प्रत्याख्याना Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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