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एकतानता अर्थात् चित्त का उसी ध्यय में स्थिर हो जाना ध्यान है,
और जब केवल अर्थ वा ध्येयमात्र का प्रतिभास या प्रतीति रह जाए, चित्त का अपना स्वरूप शुन्य हो जाए तब वह समाधि है । महर्षि कपिल ने भी इसे ही समाधि कहा है ।48
यदि मन को किसी स्थान में सेकंड भर धारण किया जाए तो उससे एक धारण होगी, यह धारणा द्वादश गुणित होने पर एक ध्यान और वह ध्यान द्वादश गुणित होने पर एक समाधि होती है ।
जैनदर्शन में धारणा के स्थान पर एकाग्र मा सन्निवेशना' को ध्यान के पूर्वका चरण स्वीकार किया गया है। किसी एक आलंबन में मन की स्थापना करना इसका अर्थ है। उत्तराध्ययनसूत्र में इस 'एकाग्र मन सन्निवेशना' का फल चित्त-निरोध अर्थात ध्यान बतलाया गया है 149 उमास्वाति के अनुसार मन को चिन्तन का किसो एक आलंबन पर स्थिर हो जाना है। ध्यानशतक अनुसार मन का किसी एक ही वस्तु पर अवस्थान ध्यान है ।। तत्वानशासन के अनुसार चित्त को विषयविशेषपर केद्रित करना ध्यान है ।
संज्ञा में किसी एक अध्यवसाय पर चित्त का स्थैर्य ध्यान है। उस चित्त का विषयान्तर होना भावना, अनुप्रेक्षा तथा चिन्ता कहा जाता है। मनोयोग का निरोध ध्यान का प्रारंभिक स्वरूप है और अंतिम स्वरूप है तीनों योगों का पूर्ण निरोध । प्रथम धर्मव्यान, द्वितीय को शु ध्यान कहा जाता है। मध्य को स्थितियाँ धर्म एवं शक्लध्यान की विविध भूमिकाए हैं। शुक्लध्यान को तुलना समाधि के साथ की जा सकती है।
आचार्य हरिभद्रभृरि
पूर का अर्थ है-आत्मा तथा महापुरुष का अर्थ है-महान आत्मा जिनके अस्तित्व में जनसाधारण से विरोध व महान् गुणों का आविर्भाव हुआ है। जिनका आदर्श स्वयं में एक आदर्श बन गया है। भगवान् महावीर को अहिंसा, बुद्ध की करुणा, राम की मर्यादा, मीरा की भक्ति वैसे ही आचार्य हरिभद्रसूरि स्वयं में योग का एक स्वर्णिम अध्याय बनकर रह गये । आप जैन समाज के सौभाग्य की एक पर्याय
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