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________________ 159 योगबिन्दु की विषय वस्तु अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाण मइयो सदारूवी । णा वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणु मित्तं पि ॥' इस संसार में पड़ा हुआ यह जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही शुभाशुभ गतियों में भ्रमण करता है । इसलिए अकेले को ही अपना हित करना चाहिए। जब यह जीव यहां से प्रयाण करता है तब सब कुछ उसका यहीं छूट जाता है । यह अपने शुभाशुभा कर्मों का फल अकेला ही भोगता हैएगो सयं पच्चुण होइ दुक्खं । इसीलिए शास्त्रों में कहा है कि एक अपने आपको जीतना यद्ध में हजारों वीरों को जीतने से बढ़ कर है तथा यही सबसे बड़ी विजय है जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे। एगे जिणेज्ज अप्पाणं एस सो परमो जयो।' इस प्रकार पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक जीव को जानो, उस जीव के जान लेने पर क्षण भर में ही शरीर, मित्र, स्त्री धन-धान्य आदि सभी वस्तुएं हेय प्रतीत होने लगती हैं सव्वायरेण जाणह इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं । जम्मि दु मुणिदे जोवे होदि असेसंखणे हेयं ।' ऐसे आत्मा के एकत्वभाव का चिन्तन करना ही एकत्व भावना है। (५) अन्यत्वभावना आत्मा के अतिरिक्त शेष जितने भी तत्त्व है यथा धन, परिजन, चलाचल सम्पत्तिआदि ये अन्य हैं, पर है। ऐसा चिन्तन करनाही अन्यत्व भावना है । संसार के समस्त पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं अर्थात् शरीर १. समयसार, गाथा ३८ २. एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभाभवावर्ते । तस्मादात्मिकहितमेकेनात्माना कार्यम् ॥ प्रशमरति प्रकरण, श्लोक १५३ ३. सूत्रकृत्तांग, १.५.२.२२, पृ० ६२८ ४. उत्तरा० ६.३४ तथा मिला० धम्मपद, गाथा १०३ ५. स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ७६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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