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________________ योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधसा का समीक्षात्मक अध्ययन भावश्चित्ताभिप्रायः' अर्थात् चित्त का अभिप्राय भाव है । आचाराङ्गसूत्र' की टीका में 'अन्त. करण की परिणति' विशेष को भाव कहा गया है । भाव हो भावना का रूप धारण करते हैं । अतः आवश्यकसूत्र की टीका में आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि 'जिसके द्वारा मन को भावित किया जाए अथवा संस्कारित किया जाए, वह भावना है । आचार्य मलयगिरी ने 'परिकर्म' अर्थात् 'विचारों की साज-सज्जा' की भावना बतलाया है । जैसे शरीर को तल, इत्र - फुलेल आदि से बारम्बार सजाया जाता है वैसे ही विचारों को अमुक-अमुक विचारों के साथ जोड़ना भावना कहलाती है - परिकर्म्येति वा भावनेति वा । " 1 146 बार-बार स्फुरित होने वाली विचार तरङगें भी भावना और अध्यवसाय बतलायी गयी हैं-- अव्यवच्छिन्न पूर्वपूर्वत र संस्कारस्य पुनः - पुनस्तदनुष्ठानरूपाभावनेति । पूर्व से पूर्वतर सस्कारों की अस्खलित धारा का प्रवाह तथा उस धारा का कार्य रूप में परिणत करना भी भावना है। इसी कारण जैन विद्याविशारद जैनाचार्यों ने पुनः पुनः चिन्तन करने को ही भावना बतलाया है ।" भावना और अनुप्रेक्षा आगमों में भावनाओं के स्थान पर अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है । स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकरण में धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान की क्रमशः चार-चार अनुप्रेक्षाएं बतलाई गई हैं । " आचार्य उमास्वाति ने भी भावना के स्थान पर अनुप्रेक्षा का प्रयोग किया है— अनित्याशरणसं सारं कत्वान्य- त्वाशुचि - आस्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मवाख्यातावानुचिन्तनमभप्रेक्षाः । १. दे० उत्तराध्ययन, २६.२२ पर टोका । २. भावोऽन्तःकरणस्य परिणति विशेषः । आचा० टीका श्रु ०१, अ० २, उ०५ ३. भाव्यतेऽनयेति भावना । आवश्यकसूत्र ५ पर टीका (हारिभद्रीय) ४. दे० वृहत्कल्पभाष्य, भाग-२, गा० १२८५ पर वृत्ति, पृ० २६७ दे० अनुयोग द्वार टीका (अमिधान) राजेन्द्र कोश, पृ० १५०५ ) आचारांगसूत्र प्रथम श्रु० अ०८. उ०६ की टीका 1 ५. ६. ७. धम्मस्सणं झाणस्य चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णताओ तं जहा एगाणुप्पेहा, अणिच्णुप्पेहा, असरणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा । स्थानांगसूत्र ४.१ 1 ८. तत्त्वार्थसूत्र ६.६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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